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________________ मेरा दक्षिण - प्रवास | [ लेखक, श्रीयुत-उदयलाल काशलीवाल । ] ( २ ) मक देवीका मन्दिर है । उसमें वैसे तो अ बकरा आदि कई जानवरोंकी बलि दी जाती है, पर हर शनिवारको मुर्गे बहुत कटते है । उनके खूनसे मंदिरका आँगन तरबतर हो जाता है। इस मंदिरका प्रबंध मूढविद्री एक जैनी सेठके हाथमें है । गवर्नमेण्ट इसके प्रबंध लिए प्रतिवर्ष कुछ रुपया उन्हें दिया करती हैं, उससे वे मन्दिरका सब प्रबंध करते हैं । यह कहा जा सकता है कि वे स्वयं उस महा अनर्थको नहीं करते हैं, तथापि मन्दिरका सब प्रबंध उन्हींके हाथमें है और वे चाहें तो अनर्थको बंद भी करवा सकते हैं; फिर कारण है कि उनका उस ओर ध्यान नहीं जाता ? यदि वे स्वयं अपनेमें उतनी सत्ता नहीं देखते तो सरकार के द्वारा उसे बंद करवाने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं? कदाचित् सरकार धार्मिक विचारोंमें हस्तक्षेप न करनेके कारण इसे बंद न करे तो उन्हें इसके प्रबंधसे अपना हाथ खींच लेना चाहिए । सुना जाता है कि मंदिरके वार्षिक देती है, उनमें से खर्च बहुत थोड़े किये प्रबंधके लिए गवर्नमेंट जो दो तीन हजार रुपये जाते हैं और इस तरह जितना रुपया बाकी बच रहता है, वह उन्हींके पास रहता है । इस लोभके मारे - इसी स्वार्थ के कारण वे उन निर राध मुकजीवों की हत्या के रोकनेका यत्न नहीं करते हैं ! जैनधर्म में ऐसे बड़े बड़े राजे महाराजे और चक्रवर्ती सम्राट् हो गये हैं कि जिन्होंने अपने धन-दौलतको, राज्य-वैभवको पैरों से ठुकरा दिया है और आप वनवासी योगी हो गये हैं; दक्षिणकनाड़ाके जैनोंमें धार्मिक ग्रन्थोंके पठन-पाठनका प्रचार प्रायः नहींसा है और इसी कारण उनकी धार्मिक प्रवृत्ति आज कई बातों में बहुत ही बिगड़ गई है। उनमें निर्माल्यका प्रचार अन्य देवी-देवताओंका विशेषतासे आराधन, आदि कितनी ही बातें ऐसी प्रचलित हो गई हैं कि जिनसे वे अपने धर्मको भूलसे गये हैं । हमारे सुनने में यहाँ तक आया है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने कार्य्यकी सिद्धिके लिए देवीदेवताओं की मानता लेकर अन्य हिंसक जातिके लोगों द्वारा जीवों की बलि तक दिलाया करते हैं । इस बातपर यद्यपि सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता कि जैनी लोग जिनका कि अहिंसा ही परमधर्म है, इतनी नीच दशा पर पहुँच गये होंगे । पर हम इस बातपर एकदम अविश्वास भी नहीं कर सकते हैं - कारण हमें यह बात एक बड़े अच्छे और प्रतिष्ठित सज्जन से ज्ञात हुई है । यदि यह बात सच है तो कहना पड़ेगा कि दक्षिणप्रान्तका सीमान्त पतन हो है। किसे खयाल था कि जिस प्रान्त के प्राचीन नररत्नोंने आजके युगमें जैनधर्मकी लाज रखली है, उनके पीछे उस प्रान्तमें इतना अन्धेरा हो जायगा और वह उधर के ज्ञान सूर्यको एकदम सदा के लिए ढक देगा ? चुका Jain Education International ऐसी ही एक और हृदयद्रावक घटना मृड़ विद्री में एक प्रतिष्ठित जैनी द्वारा हो रही है - जिसे सनका हृदय काँप उठता है ! मूड़विद्रीसे कोई एक मील के फासले पर एक " महामारी " ना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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