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________________ CHARITAMARHATARINAMAHABHARD आकांक्षा। WERTiffitititiii R ETTYINR २९१ . प्राप्त करता है। वह व्यापारमें दक्ष होता है, भी बढ़ सकती हैं । यदि इनको मनमें स्थान यह ज्ञानमें पूर्ण होता है। __नहीं दिया जायगा, तो इनके स्थानमें कुत्सित ___ जब मनुष्य अपने मनमें आकांक्षाका आनंद इच्छायें अपना अधिकार जमा लेंगीं । प्रतिदिन अनुभव करने लगता है तब उसका मन तुरंत कुछ समयके लिए एकांतमें निर्जन स्थानमें-जहाँ शुद्ध हो जाता है और उसमेंसे अपवित्रताका तक हो सके खुली हवामें-जाकर अपने मनको मैल दूर हो जाता है । जब तक आकांक्षा रहती चारों तरफसे हटाकर सम्पूर्ण शक्तियोंको एकत्र हैं, अपवित्रताका प्रवेश नहीं हो सकता । कारण करना चाहिएं। ऐसा करनेसे मन आत्मीक कि एक ही समयमें पवित्र और अपवित्र दोनों क्षेत्रमें जय प्राप्त करने और ईश्वरीय ज्ञानके उपाप्रकारके विचार मनमें नहीं रह सकते । परंतु र्जन करनेके लिए तैयार होगा। आकांक्षा पहले बहुत थोड़ी देरतक रहती है। पवित्र चीजोंके प्राप्त करनेके लिए पहले मनको थोड़ी देरके बाद फिर मन उसी पहली हालतमें अपवित्र चीजोंसे हटाना चाहिए और इसके आजाता है । अतएव आकांक्षाको उत्पन्न करनेके , * लिए आकांक्षाकी जरूरत है । आकांक्षासे मन लिए निरंतर उद्योग करते रहना चाहिए। वेग और निश्चयसे स्वर्गमें जा सकता है। ईश्वपवित्र जीवनका प्रेमी अपने मनको प्रतिदिन उच्च आकांक्षाओंसे विशुद्ध करता रहता है। 5 रीय ज्ञानका अनुभव करने लगता है, ज्ञानकी वह सबेरे प्रात:काल उठता है और दृढ विचारों वृद्धि करने लगता है और विशुद्ध केवलज्ञानके और अविश्रांत श्रमसे मनको प्रबल बनाता रहता प्रकाशसे अपनेको सुमार्ग पर लगा सकता है । है। उसे इस बातका ज्ञान रहता है कि मनकी सत्यताकी आकांक्षा करना, पवित्रताकी अभिऐसी दशा है कि यह एक मिनटके लिए भी का लाषा रखना और आत्मीक आनंदमें लीन होकर खाली नहीं रह सकता। यदि उच्च विचारों और ऊंचे ऊंचे चढ़ना यही ज्ञानप्राप्तिका मार्ग है, पवित्र आकांक्षाओंसे इसकी रक्षा नहीं की जायगी, तो यह अवश्य नीच विचारों और कुत्सित इच्छा शांतिके लिए यथेष्ट उद्योग है और ईश्वरीय ओंके आधीन हो जायगा। मार्गका प्रारम्भ है। जिस तरह प्रति दिनके अभ्याससे सांसारिक जेम्स एलनकी Passion to peace नामक इच्छायें बढ़ती जाती हैं, उसी तरह आकांक्षायें पुस्तकके Apdiration शीर्षक निबंधका भावानुवाद । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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