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मेरा दक्षिण प्रवास। mmmmmmmmmmmmmm
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यहाँ दो श्रुतभण्डार हैं । एक भट्टारकजीके नाथ जिनकी अर्द्धासन विराजमान प्रतिमा बड़ी मठमें और एक श्रीयुक्त पं० दौर्बलि जिनदा- सुन्दर है । इसके सामने दाई ओर भी एक मन्दिर है। सजी शास्त्रीके घर पर । शास्त्रीजीके भण्डारकी वह साधारण और अव्यवस्थित दशामें है । यहाँसूची जैनमित्रमें प्रकाशित हो चुकी है। से आगे चलकर जहाँसे गोमठस्वामीके मन्दिरकी भट्टारकजीके मठके श्रुतभंडारमें ग्रन्थोंका अच्छा सीमा शुरू होती है, वहाँ दरवाजेपर दोनों संग्रह बतलाया जाता है । लेखकको उस भंडारके बाजू कोई पाँच छह फुट ऊँची दो खड्गासन दर्शन न हो सके। उस समय पहले भट्टारकजी- श्याम प्रतिमायें हैं । यहाँसे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने का शरीरान्त हो चुका था और नयेका बाद गोमठस्वामीका मन्दिर आजाता है । दरपट्टाभिषेक नहीं हुआ था । इस कारण भंडार वाजेमें घुसते ही गोमठेशकी भव्यप्रतिमाका दर्शन बन्द था ।
होता है । उसे देखते ही नेत्र शीतल होजाते हैं, यहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनिराज भी रहते हैं। प्रसन्नताके मारे दर्शकका चेहरा कमलकी तरह आपका नाम अनन्तकीर्तिजी है। पर आप खिल उठता है । उस समय जो आनंद हृदयमें निल्लीकारके नामसे प्रसिद्ध हैं । आप बड़े ही होता है वह इतना अधिक होता है कि उसे शान्त-स्वभावी हैं । सदा ही हँस-मुख रहते हैं। भीतर स्थान न मिलनके कारण मधुर हँसीके जिस पहाड़पर गोमठेश्वरकी प्रतिमा है उसी रूपमें वह बाहिर उबराता रहता है । पर चढ़ते समय पहले एक मन्दिर मिलता है, यह अनुभव होता है कि हम दुःखपूर्ण मर्त्यलोक उसमें आप रहते हैं । बारहों महीने आप नग्न छोड़कर किसी दिव्य लोकमें आ बसे हैं । चिन्ता, रहते हैं । आपका समय ध्यानमें अधिक व्यतीत दुःख, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि जितने होता है । कभी कभी सारी सारी रात ही विकार हैं वे सब उस समय न जाने कहाँ भाग ध्यानमें बैठे बीत जाती है । शास्त्रज्ञान आपका जाते हैं । हृदय भक्ति-सरोवरमें मग्न हो जाता साधारण है । मातृभाषा आपकी कनड़ी है। है। उससमय भक्तिभरे हृदयसे जो आराधना पर हिन्दीसे आपको बड़ा प्रेम है । हिन्दी की जाती है और उससे जो आँखोंसे पवित्र ग्रन्थोंका आप प्रायः स्वाध्याय करते रहते हैं। आनन्दाश्रुकी मोतीसी कुछ बूंदे गिरती हैं वे ग्यारह बजे आप आहारके लिए गाँवमें आते अमोल हैं-पवित्र आत्माओंके लिए त्रिलोक भी हैं । आहार मिलता है तो ले लेते हैं नहीं तो उनके सामने तुच्छ जान पड़ता है । वह भव्यशान्तिसे वापिस लौट जाते हैं। उत्तरप्रान्तके प्रतिमा इतनी सुन्दर है-इतनी मनोमोहक है कि ढोंगी त्यागियोंकी तरह आप कोई प्रकारका घंटों उसके दर्शन करते रहो वहाँसे हटनेकी आडम्बर नहीं दिखाते हैं । आपके दर्शनोंसे इच्छा ही नहीं होती। इस प्रतिमाको बने हुए लेखकको बड़ी शान्ति मिली।
कोई ९०० वर्ष हो गये, पर वह ऐसी जान जिस पहाड़पर गोमठस्वामीकी प्रतिमा है उसे पड़ती है मानो आज ही बनाई गई है । इस प्रतिविध्यगिरि कहते हैं। कोई दो फींग ऊपर चढ़ना माको देखनेके लिए बड़े बड़े अंग्रेजलोग आते पड़ता है तब गोमठस्वामीकी प्रतिमाके पास पहुँ. हैं । उनसे-कहते सुना गया है कि दुनियाँके चते हैं। जब एक फर्लागके करीब ऊपर चढ़ जाते हैं किसी हिस्सेपर इतनी सुन्दर मूर्ति नहीं है। तब बीचमें एक मन्दिर मिलता है । इसमें आदि- बुद्धोंकी मूर्तियाँ इससे भी बड़ी बड़ी बहुत
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