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________________ २८४ जैनहितैषीImmmmmmmHITIES प्रगट किया है कि हमने अपने उक्त लेखमें अतः 'एपीग्रेफिका एण्डिका ' आदिके उन शिचामुण्डराय और नेमिचन्द्रका समय ईसाकी लालेखोंके प्रगट होनेकी जरूरत है जिनसे प्रोफे११ वीं शताब्दी लिखा है । परन्तु 'दिग- सर साहबके इस समयका समर्थन होता हो और म्बरजैन' के गत खास अंकमें प्रकाशित आपके जिनके आधार पर प्रोफेसर साहबने उक्त समउक्त लेखको देखनेसे ऐसा मालूम नहीं होता। यका निश्चय किया है। दूसरा भ्रम वही संवत्के उसमें साफ़ तौरपर दोनोंका समय ईसाकी नाम तथा संवत्में तिथि, दिन और नक्षत्रादिकके १० वी शताब्दी लिखा है । उसीका मैंने उन योगोंके घटित होनेसे सम्बन्ध रखता है, जो अपने पूर्वके नोटमें उल्लेख भी किया था। प्रोफ़े- बाहुबलिचरित्रके उस पद्यमें वर्णन किये गये हैं, सर साहबने उसका कोई प्रतिवाद नहीं किया। जिसमें कल्क्यब्द ६०० का उल्लेख है और जिसे इससे आपके दोनों कथनोंमें सर्वसाधारणको मैंने अपने पहले नोटमें उद्धृत किया था। ईसवी भ्रममें डालनेवाला पूर्वापर विरोध पाया जाता सन् १०७४ विक्रम संवत् ११३१ और शक है और लगभग एक शताब्दीका अन्तर बैठता है। संवत् ९९६ के बराबर है । इन संवतोंमें किसी चामुण्डरायके विषयमें अभीतक जो कुछ प्रमाण भी संवत्का नाम ( उक्त पद्यमें वर्णित ) उपलब्ध हुए हैं उनसे चामुण्डरायका समय 'विभव ' नहीं हो सकता। यदि बाहुबलिइंसाकी १० वी शताब्दी ही निश्चित होता चरित्रके समय-सूचक इस कथनको और उसके है; ११ वाँ शताब्दीका उत्तरार्ध या ईसवी आधारपर प्रोफेसर साहबकी की हुई उक्त गणनाको सन् १०७४ नहीं होता । मिस्टर राइससाहबने सत्य माना जाय, तो ज्योतिषशास्त्रके उन नियअपनी 'इन्स्क्रिप्शन्सऐट श्रवणबेल्गोल' नामक मोंके प्रगट होनेकी भी जरूरत है जिनके आधार पुस्तककी प्रस्तावनामें लिखा है कि, चामुण्ड- पर विक्रम संवत् ११३१ या शक संवत् ९९६ रायने एक पराण बनाया है जिसमें उसके बन- का नाम 'विभव हो सके और जिनके कर समाप्त होनेका समय शक संवत् ९०० आधारपर इस सालकी चैत्र शुक्ला पंचमीको ( ई. सन् ९७८) दिया है । श्रीयुत पं. नाथू- रविवारका दिन, सौभाग्य योग और हस्त रामजी प्रेमी, चन्द्रप्रभचरितमें 'वीरनन्दि' का नक्षत्र सिद्ध किये जा सकें । निःसन्देह यह परिचय देते हुए, रत्नकविके 'पुराणतिलक' एक उलझन है, जिसके खुल जानेकी बहुत नामक ग्रंथके आधारपर, जो कि शक संवत् बड़ी जरूरत है । अतः प्रोफेसर साहबसे ९१५ ( ई. सन ९९३) में बनकर समाप्त हुआ मेरा पुनः निवेदन है कि वे कृपाकर फिरहै, लिखते हैं कि उस ग्रंथमें कविने अपने ऊपर से इस विषयपर विचार करें और उक्त भ्रमोंको चामुण्डरायकी विशेष कृपा होनेका उल्लेख किया दूर करनेका कष्ट उठाएँ । यदि जाँचसे उन्हें है । इस प्रकारके प्रमाणोंके मौजूद होते अपने इस नोटका उक्त कथन भी सत्य प्रमाहुए, प्रोफेसर साहबका चामुण्डरायको ईसाकी णित न होवे तो कृपया उसका भी प्रतिवाद ११ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें बतलाना और निकाल देवें जिससे सर्वसाधारणमें आपके उनके द्वारा ईसवी सन् १०७४ में गोम्मटेश्वरकी कथन-द्वारा किसी प्रकारका भ्रम न फैल सके । मूर्तिके प्रतिष्ठित किये जानेकी घोषणा करना, यह यहाँ मैं यह भी सूचित करदेना उचित समझसब पाठकोंके हृदयोंमें बहुत ही खटकता है। ता हूँ कि कहीं कहीं कल्क्यब्द ' के स्थानमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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