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________________ ३०८ जैनहितैषी - कदाचित् कोई यह संदेह करे कि मैंने जो परिणाम निकाले हैं उनका कारण यह है कि मैं जैनोंका -- उनके धर्मका -- पक्षपाती हूँ, अथवा यह बात है कि मैंने केवल जैन ग्रंथोंके आधार पर ही खोजकी है, इस लिए मैं यहाँ पर यह कहे देता हूँ कि पहली बातका उत्तर यह है कि जब मैंने अपना पंचतंत्र विषयक अध्ययन आरम्भ किया तब मुझे जैनोंका अथवा उनके साहित्यका बहुत ही अल्प ज्ञान था, और दूसरी बातका उत्तर यह है कि मैंने इन वर्षोंमें पंचतंत्र की जितनी हस्तलिखित प्रति याँ मिल सकीं उन सबको इकट्ठा करनेका यथाशक्ति प्रयत्न किया— इसके लिए मुझे सैकड़ों पत्र लिखने पड़े और बहुत धन खर्च करना पड़ा । मुझे अपने अध्ययन के शुरू यह आशा थी कि बैनफेके परिणामोंकी पुष्टि होगी, परन्तु इसके बिलकुल विपरीत हुआ, और इस परिणामका कारण न तो पक्षपात है और न यह है कि मैंने सत्य की खोजमें कुछ उपेक्षा की हो, किन्तु इसका कारण यह है कि जैनॉने और विशेषकर गुजरातके श्वेताम्बरोंने केवल हेमचन्द्रके ही समय में नहीं, किन्तु इस विद्वान्के बहुत समय पहलेसे और बहुत समय बाद तक अपने देशकी सभ्यता पर बड़ा प्रबल और हितकर प्रभाव डाला । उन्होंने केवल आपने धर्मकी ही उन्नति न की, जिसके द्वारा उनके देशबन्धुओंने मनुष्यों और पशुओंके प्रति दयाभाव रखना और उनके शासकोंने प्रजापुर न्याय करना सीखा; किन्तु उन्होंने संस्कृत और प्राकृतमें, ब्रजभाषा और अपनी बोली गुजराती में साहित्य और ज्ञान संबंधी उन्नति भी की। साथ ही साथ जैनके श्रावकोंने विशाल मंदिर बनवाये, जिनसे देश सुशोभित हो गया और ग्रह-निर्माण- कलाकी Jain Education International वृद्धि हुई । उन्होंने हज़ारों हस्तलिखित ग्रंथों नकल करवाई और अपने मुनियोंके लिए ग्रंथभंडार स्थापित कराये । ये मुनि भी संकीर्ण विचारके न थे । हेमचन्द्रके समान उन्होंने अन्य धर्मानुयायियों के शास्त्र भी पढ़े, और यही कारण है कि उनका आत्मिक संस्कार, जिसका प्रमाण उस विपुल जैनसाहित्यसे जो इस समय उपलब्ध है भले प्रकार मिलता है और भारतवर्ष | जैन भरमें कदाचित् सबसे बढ़ा चढ़ा था लेखकोंके बिना प्रकृतसाहित्य क्या होती ? मेरा यह अटल विश्वास है कि जैनी अपने उच्च आत्मिक संस्कार के कारण ही भारतवर्षमें सर्वसाधारणके बीच में और हिन्दू तथा मुसलमान राजाओंके दरबार में अपने आपको और अपने प्रभावको बनाये रहे । जो मनुष्य विद्वान् न थे उनके लिए जैनोंने देशी भाषाओं में मनोहर साहित्य तैयार किया और राजाओंके दरबारमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दिग्गज विद्वानोंका साहित्य-रचना और विद्वत्तामें मुकाबला किया और उन्होंने इस तरहसे जो मान्यता ( गौरव ) प्राप्तकी उसके द्वारा उन्होंने राजाओंका ध्यान अपनी प्रजापर न्यायपरता और दयाशीलता के साथ शासन करनेकी ओर आकर्षित किया । यह दिखलाने के लिए कि साहित्य-रचना - में यह मान्यता कहाँ तक प्रकट हुई और जैन साधुओंने अपने देशवासियोंकी शिक्षाक सीमाको बढ़ानेका कितना प्रयत्न किया मैं संक्षेपमें अपने पंचतंत्र संबंधी अध्ययनके परिणामोंका उल्लेख करता हूँ । मूलग्रंथका कर्ता विष्णुशर्मा नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण था । यह ग्रंथ लगभग ३०० और ५७० ईसवी सन्के बीच में लिखा गया होगा । इस ग्रंथका कर्ता बैनफेके कथनानुसार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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