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जैन लेखक और पंचतंत्र। EMAITRINTIMAT urnimfiniti
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ग्रंथका रूपान्तर (परिवर्तित अनुवाद ) है जो अध्ययन करना अत्यन्त चित्ताकर्षक मालूम हुआ। ब्राह्मणों द्वारा हुआ है । ब्राह्मणोंने अपने ऐतिहा- पहले पहल जब मैंने अपना अध्ययन आरसिक और साहित्यिकप्रेमके कारण इस ग्रंथ. म्भ किया तब मुझे यह आवश्यकीय मालूम को नष्ट होनेसे बचा लिया; उन्होंने इसका रू- हुआ कि छपी हुई आवृत्तियोंको छोड़ कर पान्तर किया और इसके वे सब अध्याय छोड़ मूलग्रंथ और उसके रूपान्तरोंकी हस्तलिखित दिये जो उनके तथा उनके धर्मके प्रतियोंकी परीक्षा की जाय । मैंने यही किया प्रतिकूल थे।
और मुझे इस काममें कई वर्ष लग गये । मैंने इस निबंधके लेखकको ये सब समस्यायें पंचतंत्रकी केवल उन्हीं हस्तलिखित प्रतियोंकी बहुत ही चित्ताकर्षक मालूम हुई । अति प्रा
परीक्षा ही नहीं की जो योरोप और भारतवर्षके
- सार्वजनिक पुस्तकालयोंमें मिल सकीं, किन्तु चीन कालमें योरोपमें सभ्यता एशिया
__भारतीय, और योरोपीय विद्वानोंकी कृपासे मैंने से आई, यह एक ऐसी बात है, जिसको
निजी पुस्तकालयोंमेंसे हस्तलिखित प्रतियोंकोई भी मनुष्य, जो इतिहास जानता है,
९) का बहुत बड़ा संग्रह प्राप्त कर लिया । अब अस्वीकार नहीं कर सकता । यह प्राचान मेरा अध्ययन समाप्त होगया है और मैं अपने कथा-ग्रंथ, जिसका . अथशास्त्र.. अथात् अध्ययनके परिणामोंको पुस्तकाकार प्रकाशित राजनीतिका संग्रह भी कह सकते हैं, अपने
करना चाहता हूँ। मैंने यह पुस्तक जर्मन भाषादेश ( जन्म-स्थान ) से चलते चलते संसारक में लिखी है और इसका नाम " पंचतंत्र; दूसरे सिरेके देशोंमें पहुंच गया और इसकी
है। उसका इतिहास और उसका भौगोलिक गतिको न तो मतमतान्तरोंकी, नीति-शास्त्र विभाग । " रक्खा है। विषयक सिद्धान्तोंकी और भाषाकी भिन्नतायें
___ पंचतंत्रके इतिहासके विषयमें मैंने जो खोजें ही रोक सकी और न भिन्न भिन्न देशों और जातियोंके रीति-रिवाजोंने ही इसकी गति- का ह
की हैं उनसे ऐसा परिणाम निकला है कि उसकी
: आशा न तो मैं और न कोई यूरोपीय अथवा का विरोध किया; किन्तु यह ग्रंथ जिन जातियों
. भारतीय विद्वान कर सकता था । इन खोजोंने में पहुँचा वहीं समाजके संस्कृत और साधारण वर्गोंका सदियों तक प्रेम-पात्र बना रहा-यह
। मुझ पर यह प्रकट कर दिया है कि
जैनोंके साहित्यने, और विशेषकर बात बड़ी ही कुतूहलजनक है और यह सिद्ध
गुजरात निवासी श्वेताम्बरोंके साहित्यकरती है कि दूरवर्ती पूर्व और दूरवर्ती पश्चिममें विचारोंका लेन-देन ख़ब होता था। और ने संस्कृत और भारतवर्षकी देशी भाषाओं मुझे इस ( सार्वभौमिक-धर्मशास्त्र ) के--क्योंकि
पर बड़ा भारी प्रभाव डाला है और इन
खोजोंसे मुझे इस आशातीत बातका भी पता इसका यह नाम बहुत ही उपयुक्त है-इतिहासका
लगा है कि शुकसप्तति (शुक-बहत्तरी) नामक १. यदि इस चित्ताकर्षक विषयका विशेष ज्ञान
वाद हो प्राप्त करना हो तो कीथ-फाक्नर द्वारा संपादित “कलै- चुका है और फिर मुसलमानोंने इस ग्रंथका बह-दमनह" की प्रस्तावना देखनी चाहिए (कैम्ब्रेज प्रचार किया है और वे ही योरोप तक इस यूनीवर्सिटी प्रेस, १८८५ ई.)।
ग्रंथको ले गये हैं।
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