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________________ ३१४ जैनहितैषी । पर उसी समय वहाँसे चला आता था । किसी विपदग्रस्त मनुष्यके साथ घड़ी भर में वह अत्यंत प्रसन्नमनसे अंतरङ्गता बढ़ा लेता था, पर उसकी सहायता कर चुकने पर दूसरे ही दिन वह इस तरह विस्मरण हो जाता था कि उसका नाम भी भूल जाता था । उसके स्वभावमें ऐसी आश्चर्यमय विशेषता थी कि किसी कामके परिणामसे उसे कभी हर्ष या विषाद नहीं होता था । वह जिस कामको करता था यदि उसमें उसे उत्साह मिलता था तो वह उस कामको बहुत साधारण रीतिसे चलाता था, किन्तु यदि उसमें बाधा पहुँचती थी तो वह अंधजिह से उत्तेजित होकर उस कामकी साधना में और भी अधिक दृढ़ता से लग जाता था । छुटपनमें जब वह ग्राम्य-पाठशाला में पढ़ता था उस समय कई एक शैतान और मंदबुद्धि सहपाठियोंके साथ मार-पीट या लड़ाई-झगड़ेमें बाजी मारले जानेके सिवाय उसने और किसी विषय में सफलता नहीं पाई थी । किन्तु जब १० वर्षकी उमरमें मामा साहबके अनुग्रहसे जबलपूरके एक अंग्रेजी विद्यालयकी सातवीं श्रेणीमें ३६ विद्यार्थियोंके नीचे उसका नाम लिखा गया, तब उसका उत्साह एकदम बढ़ गया । वह कठिन गरमी, घोर वर्षा और दारुण शीतकाल में अपने शरीर और आराम के लिए कुछ भी अवसर न देकर सहपाठियोंकी प्रतिद्वन्दितामें इस तरह उतर गया कि जब वार्षिक परीक्षाका फल प्रकाशित हुआ, तब छत्तीस विद्यार्थियोंमें वही प्रथम आया । इस तरह वह वर्ष - प्रतिवर्ष प्रत्येक श्रेणीमें उत्तीर्ण होने लगा । जब बीस वर्षकी अवस्था में परिचित तथा आत्मीय बंधुओंसे श्रद्धा और भक्ति का उपहार पाकर वह बी. ए. की अंतिम परि क्षामें विशेष सन्मानपूर्वक उत्तीर्ण हुआ तब Jain Education International उसकी भाग्यलक्ष्मी अत्यंत स्तुति-वाद के संघा तसे एकाएक विमुख हो गईं । रामनाथ के मामा सरयू प्रसाद मिश्र एक तार केदार थे, इस लिए कानूनी व्यवसाय अर्था वकीली ही उनके लिए सबसे अधिक मनुष्यत्वका परिचय देनेवाली विद्या थी । इसी लिए उन्होंने अपने भानजे रामनाथको आगे कानून पढ़ने की आज्ञा दी । परन्तु रामनाथने अत्यन्त दृढ़ और स्पष्टशतिसे लिख भेजा कि " वाक्य-विक्रय करके आजीविका चलाना मेरे जैसे क्षुद्र प्रकृति आदमीके लिए संभव नहीं है, मैं एम. ए. पास करके अध्यापकी कार्यमें व्रती होना चाहता हूँ । ” मामा साहबने गरम होकर उसको जिद छोड़ देनेके लिए लिखा, परन्तु रामनाथने रुष्ट होकर उनके पत्रका जवाब तक न दिया । इसी समय एक और घटना घटी । रामनाथके बी. ए. पास होनेका समाचार चारों ओर फैलते ही रामनाथके पिताके वासस्थान सिंहपुरके जमीदार बाबू बदरीप्रसादजीने शीघ्र ही रामनाथके साथ अपनी कन्याका संबंध करनेके लिए सरयूप्रसादके पास नाई भेजा । ऐसे गण्य और प्रसिद्ध धनी जमीदार के साथ विवाह संबंध करने के लिए सरयूप्रसादको विशेष आग्रह हो सकता है, परन्तु इस विषय में रामनाथ एकदम उदासीन है । एक बड़े घर से सम्बन्ध बढ़ानेकी मामाकी इच्छा और अपने भविष्य सौभाग्यकी आशा के सम्बन्धमें लिखे हुए एक विशद और विस्तृत पत्रके उत्तर में रामनाथने घर न जाकर बड़ी नम्रता और सन्मान के साथ मामाको प्रणाम लिखकर, बहुत ही संक्षिप्त और सरल भाषामें इस मनलुभानेवाले संबंधके विषयमें कुछ ऐसी बातें लिख भेजीं जिससे सरयूप्रसाद, बदरीप्रसाद बाबूके प्रस्तावित विषय पर एकदम निरुत्तर होगये और उसी दिन से उन्होंने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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