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________________ HARImmmmmmmmmm २९४ जैनहितैषी पर ही उनका पूरा प्रेम नहीं, तब वे उनकी भाई अपनी समाजमें शिक्षा प्रचार करेंगे, तब ही शिक्षाकी अधिक चिन्ता न करें तो इसमें कोई वे अपनी वर्तमान परिस्थितिको सुधार सकेंगे। आश्चर्य नहीं है। ___ गत मनुष्यगणनाकी जो सरकारी रिपोर्ट कुछ लोग शिक्षाकी रुकावटका यह कारण प्रकाशित हुई है, उसके देखनेसे विदित होता है बतलाते हैं कि इधर जैनियोंके घर एक-एक, दो- कि दक्षिणकनाड़ाके जैनोंकी जन-संख्या कुल दो मीलके फासले पर बसे हुए हैं। उनके आस- ८००० के लगभग है। इधरके मूडबिद्री, पास ऐसा कोई पढाईका प्रबन्ध नहीं जहाँ वे कारकल सदृश स्थानोंके विशाल जैनमन्दिरों और अपने बच्चोंको पढ़नेके लिए भेज सकें। पर हमारी बहु-मूल्य प्रतिमाओंको देखकर तो यही जान समझमें यह साधारण कारण है। क्योंकि जिन्हें पड़ता है कि इस प्रान्तमें पहले जैनोंकी संख्या अपनी सन्तानको शिक्षा देना हो-और वे उसे बहुत ज्यादः होगी । वहाँके लोगोंके कहनेसे आवश्यक समझते हों तो अनेक ऐसे उपाय हैं जान पड़ा कि पहले यहाँ जैनोंके कोई छह जिनसे उसकी शिक्षाका प्रबंध किया जा सकता सात सौ घर थे । इसी तरह कारकलमें भी तीन है। कारकलमें एक जैन पाठशाला इसी लिए चार सौ घर थे । पर अब इन दोनों स्थानोंमें खोली गई कि उसमें आसपासके लड़के आकर जैनोंके घरोंकी संख्या केवल ३० बची है। विद्याभ्यास करें। पर उसके मुख्य स्थापक श्रीयुत् उनमेंसे मूड़विद्रीमें २५ के लगभग और कारएम. नमिराज पड़िवार और उसके प्रधानाध्या- कलमें पाँच हैं । इस भयंकर ह्रसका क्या कारण पक श्रीयुत पं. के. कुमारैयाजीसे मालूम हुआ हुआ ? इस विषयका गहरा अन्वेषण होना चाकि जैनियोंके लड़के ही पढ़नेको नहीं हिए । कुछ लोग इसका कारण यह बतलाते हैं आते । हमने पाठशालामें जाकर देखा कि इधरकी कई जैन जातियोंको सत्ताके जोतो उसमें अन्य जातियों के कोई २५-३० लडके रसे अन्य धर्मियोंने अपनेमें मिला लिया। इसके लड़कियाँ पढ़ती थीं और जैनियोंके सिर्फ दो लड़- सिवाय एक और कारण भी हमारी समझमें के थे ! मूडविद्रीमें भी एक पाठशाला है पर जै- आता है और वह-'भूतपाण्डि-एक्ट' है, जिससे न विद्यार्थियोंका वहाँ भी अभाव है ! मैंगलोरमें कि पिताकी जायदादका वारिस लड़का जो वहाँसे २४ मील दूर है-दो जैन बोर्डिंग न होकर भानजा होता है । जबसे भारतका हैं । एक दो वर्ष पहलेका है और एक अभी शासन न्यायशील वृटिश जातिके हाथमें श्रीयुत एम. नेमिराजने लगभग दस हजारके खर्च- गया है, तबसे भारतमें ऐसे कोई धार्मिक से तैयार कराया है। विद्यार्थी यहाँ भी थोडे ही आक्रमण नहीं हुए जो सत्ताके जोरसे जबरन हैं । इन सब बातोंसे यही जान पड़ता है कि लोग अपने धर्ममें शामिल किये गये हों । यहाँके बालक-बालिकाओंके अभिभावकोंका ही पर उधर जैनियोंकी संख्या तो पचास-पचइसमें अधिक दोष है । कितने आश्चर्यकी बात ! - हत्तर वर्ष पहले भी बहुत थी। तब यह कहा जा सकता है कि उक्त कानूनसे भी जैनसमाहै कि सारे दक्षिणकनाड़ाके जैनोंमें एक भी जको बहुत हानि उठाना पड़ी है । यहाँके ग्रेज्युएट या धार्मिक विद्वान इस समय नहीं है। जैनोंके पास स्थावर सम्पत्ति ही प्रायः ज्यादा है जब समयकी स्थिति देखकर दक्षिणकनाड़ाके और वह पीड़ी-दरपीड़ीसे चली आती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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