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AHIRWAIIMARATHIBHIBAHEBINIRA AE मेरा दक्षिण-प्रवास ।
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संस्कृत पढ़नेवाले विद्यार्थियोंके लिए अंगरेजी- ख्यक ग्रंथ थे। दुर्भाग्यसे आग लगजानेके कारण शिक्षाके प्रबन्धकी आवश्यकता है । बोर्डिंगकी राजमहलके साथ साथ ग्रन्थभण्डार भी भस्मीलायब्रेरीमें अन्य पुस्तकोंके अतिरिक्त कोई ६०- भूत हो गया । ७० ताड़पत्र पर लिखी संस्कृत और कनड़ी यहाँ पझैया नामक एक जैनब्राह्मण रहते भाषाकी पुस्तकें भी हैं । इन पुस्तकोंके देखनेसे हैं; गान विद्यामें वे बड़े कशल हैं ! इनको राज्यमझे यहाँ कवि हस्तिमल्लके बनाये मैथिली- की ओरसे अच्छा आश्रय है । एक श्रुतभंडार परिणय, अंजनापरिणय, और सुभद्रापरिणय इनके यहाँ भी है। खेद है कि लेखकको उस ये तीन नाटक मिले। श्रीयुत नमिसागरजी वर्णी- भंडारके देखनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। के प्रयत्न और सेठ वर्द्धमानैयाजीकी उदारतासे यहाँसे श्रवणबेलगोला गया । श्रवणबेलगोला इन तीनों पस्तकोंको में अपने साथ ले आया तक रेल न होनेसे बैलगाड़ी द्वारा जाना पड़ा। हूँ । श्रीमाणिकचन्द्र दिगम्बरजैन ग्रन्थमालामें ये श्रवणबेलगोला यहाँसे ४० मीलके लगभग है । तीनों नाटक प्रकाशित होकर शीघ्र ही पाठकोंको मैसरसे श्रीयत पं० दौर्बलि जिनदास शास्त्रीका देखनेको मिलेंगे।
भी साथ हो गया था। इस प्रान्तके जैन-समामैसूरके पंचायति मंदिरमें भी एक श्रतभंडार जमे आप ही एक जैन-विद्वान् हैं। साहित्यमें है। उसमें २०० के लगभग ताडपत्र पर लिखी आपका अच्छा पाण्डित्य है । आपके साथ हुई पुस्तकें हैं। देखनेसे जान पड़ा कि उसमें वार्तालाप करनेसे एक बड़े महत्त्वकी बात विवैद्यक और ज्योतिषके ग्रन्थ ज्यादा हैं और वे दित हुई । आपने कहा-जैनधर्ममें जो संध्या, प्रायः अन्य धर्मियों के बनाये हुए हैं । जैनधर्मका आचमन, तर्पण, यज्ञोपवीत आदि जितने बाह्य उल्लेखयोग्य कोई ग्रन्थ न देख पड़ा ! आचार हैं-संस्कार हैं, वे सब जैनधर्ममें पीछेसे
। शामिल किए गये हैं। इसका कारण उन्होंने मैसूरकी सरकारी ओरियण्टल लायब्रेरी भी
। बतलाया-पहले यहाँ ब्राह्मणोंका बड़ा जोर था। देखी। उसमें ताड़पत्र पर लिखे और छपे ग्रन्थ बहत हैं। जैनधर्मके लिखित और मुद्रित सब नास्तिक. शद्र वगैरह कहकर उनका अपमान
। जैनियोंसे उनका बड़ा द्वेष था। जैनियोंको वे ग्रन्थ मिलाकर ५०-६० के लगभग हैं। उल्लेख ,
४ख करते थे। उन्होंने उस समयके राजाओंको अपने योग्य कोई ग्रन्थ नहीं।
हाथमें करके जैनविद्वानोंका उनके लिए आशीयहाँ संस्कृतके पठन-पाठनका अच्छा प्रचार वर्वाद देना तक बंद करवा दिया था। जैनधहै। संस्कृत प्रचारके लिए मैसूर इस प्रान्तकी ममें उस समय बड़े बड़े दिग्गज विद्वान् मौ. काशी समझा जाता है । यहाँ सरकारकी ओरसे जद थे । ब्राह्मणोंको यह भय सदा बना एक बड़ी भारी संस्कृत पाठशाला है। उसमें रहता था कि कहीं ये लोग राजाको अपने न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयोंकी २५० धर्ममें शामिल न करलें और फिर उससे के लगभग विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं।
हमारी आजीविका न चली जाय । जैनसुना गया कि पहले मैसूरके राजमहलमें एक धर्ममें उस समय यज्ञोपवीत आदि बाह्यविशाल ग्रन्थालय था। उसमें प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ आचार न थे और इसी लिए वे शूद्र समझे जाते संग्रह किये गये थे। उनमें जैनधर्मके भी बहुसं- थे । भगवज्जिनसेन उसी जमानेमें हो गये
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