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________________ २७८ SE MAH ILAADARA जनहितैषी MORA करके स्त्रीको दोषी ठहराता है तो कहना होगा विवाह योग्य समझे गये हैं। परंतु इसके साथ यह कि उसने अपने स्वार्थसे धर्म सिद्धान्तको भी एक विचार भी हिन्दुस्थानमें प्रचलित है कि बदल डाला है और अपनी इच्छानुसार मन-घड़न्त जो स्त्री अपने पतिके सामने मरती है वह भाग्यसिद्धान्त बना लिये हैं, क्योंकि धर्मशास्त्रोंमें तो वान् है और जो पतिके पीछे जीवित रहकर कुशीलका दोष स्त्री-पुरुष दोनोंके वास्ते समान विधवा बनती है वह अत्यन्त अभागी है । ऐसी ही लिखा है । पुरुषको अधिक वाध्य करनेके अवस्थामें जो स्त्री अपनेसे छोटे पतिके साथ लिए ' स्वदारासंतोष-वत' का उपदेश दिया है। विवाही जाती है वह तो भाग्यवान् है ही, क्योंकि जैनधर्मकी कर्मफिलासोफी तो पुरुषोंको विवा- उसकी आयु पतिकी आयुसे अधिक होनेके कारण हिता स्त्री भी एकसे अधिक रखनेपर-कामलालसा व्यवहारमें यही आशा की जा सकती है कि वह अधिक होनेके कारण पापी ठहराये बिना नहीं पतिसे पहले ही चल देगी। इसी कारण यह छोड़ती है। कुछ भी हो स्वार्थान्ध पुरुषोंने धर्मके कहावत प्रसिद्ध हुई है-" बड़ी बहू बड़े भाग सिद्धान्तोंसे आँखें मीचकर मनमानी करने के लिए छोटी बहू छोटे भाग ।” परन्तु जहाँ दशवर्षकी कमर करती है। अस्तु, पुरुषों का स्वार्थ और स्त्रियों- बालिका सत्तर वर्षके बढ़ेके साथ व्याही जाती की निर्बलता उनकी आँखें नहीं खुलने देती है। हो वहाँ तो उसके विधवा होनेकी इन्तजारीमें ___ अब विचारनेकी बात है कि जहाँ स्वार्थने घड़ियाँ ही गिनना पड़ेंगी । इस कारण उसके इतना अंधकार कर रक्खा हो, जहाँ स्त्रियाँ दासी अभागिनी होनमें कुछ भी सन्देह नहीं है । परन्तु और पशुओंसे भी तुच्छ समझी जाती हों-वहाँ ऐसा वहीं होता है जहाँ लड़कीके मा बाप अपने अनमेल विवाह होना कौन आश्चर्यकी बात है? जैसे दामादोंसे-जो इस दुनियाके कुछ दिनके जहाँ स्त्रियाँ अर्धाङ्गिनी समझी जाती हैं, वहाँ ही मेहमान हैं-अपनी कन्याके तौलसे भी अधिक विवाहके असली उद्देश्यकी पूर्ति करनेके लिए रुपया गिना लेते हैं; और जहाँ वह बूढ़ा भी विवाह किया जाता है । वहाँ न तो अनमेल मानो केवल इसी उद्देश्यसे इतने रुपये खर्च करता है विवाह ही होता है और न एकसे अधिक स्त्री कि वह अपने मरनेपर कोई चूड़ियाँ फोड़नेवालीविवाही जाती है । वहीं गृहस्थको सच्चा सुख उस मना सब उसकी विधवा कहलानेवाली छोड़ जावे । अतएव मिलता है और वहीं लोग अपने देशकी और अपने मा-बापका घर रुपयोंसे भर देने, और अपनी जातिकी भलाई कर सकते हैं । यदि अपने पतिकी इच्छाको पूरी करनेके लिए विधवा स्त्रीको विवाह कर लाना उसको अद्वाडिन्नी बनकर घर बैठी रहनेके कारण वह भी एक तरबनानेके वास्ते नहीं है, बल्कि दासी वा पश- हसे भाग्यवान ही है। ओंकी तरह उनका संग्रह करनेके लिए है तो भारतवर्षकी जो जो जातियाँ अपनेको उच्च फिर इस बातके जाँचनेकी जरूरत ही क्या है समझकर धरती पर पैर नहीं रखना चाहती कि दोनोंका मेल ठीक है या नहीं । छोटे छोटे और जो अन्य जातियोंको बहुत ही तिरस्काबच्चोंकी दासियाँ क्या बूढ़ी स्त्रियाँ नहीं होती रकी दृष्टिसे देखती हैं, उनमें भी कन्याओंको हैं ? और इसी तरह क्या बूढ़े बूढ़े मनुष्योंके बेचनेसे बहुतसे बेटीवाले मालदार होते रहते हैं यहाँ छोटी छोटी लड़कियाँ दासीका काम नहीं और बहुतसे कबरमें पैर लटकानेवाले बूढोंके कर सकतीं ? ऐसे ही विचारोंसे इस देशमें अनमेल घर भी उनकी पोतीके बराबर छोटी पत्नियोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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