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________________ MAHARIHARATIBHABITAMIRMIRMIRMAHARA ___ अनमेल विवाह। २७७ न्याको भेटमें देनेके रिवाजका इतना चिन्ह अब को तैयार होते हैं और न बेटीवाला ही अपनी पी मौजूद है कि लड़केवाला बरातमें अपने सब बेटी व्याहनेको राजी होता है । पुरुषोंकी यह सम्बन्धियों और मित्रोंको इकट्ठा करके एक कामवासना इतने अधम दर्जेको पहुँच गई है नारी लाव-लशकरसे बेटीवाले पर चढ़ाई कि वे परस्त्रीसे अनुचित संबंध करके अपने करता है और जब बरात बेटी वालेके ग्रामके काले मुँहको बुरा नहीं समझते हैं। उन्होंने पास पहुँच जाती है, तब बेटीवाला अपने सम्ब- अपने स्वार्थसे व्याहता स्त्रीको अर्धाङ्गिनी माननेके न्धियों, मित्रों और ग्रामके मुखियोंको साथ लेकर बदले उसे उसको इतने नीचे गिरा दिया है, कि नकदी, जेवर और घोड़ा-घोड़ी आदि भेंटकी कई एक तो इस अनुचित कृत्यको अपनी स्त्रीके वस्तुयें लेकर हाजिर होता है और नम्रतापूर्वक सन्मुख करनेमें भी नहीं लजाते हैं और बेधड़क आगन्तुकोंको शान्त करता हुआ अपनी बेटीका उसकी छातीपर मूंग दलते हैं। बेचारी स्त्रीकी होला उनके हवाले करता है। जब तक बरात इतनी मजाल कहाँ कि वह मुँह खोल सके और उसके ग्राममें ठहरती है, तब तक वह अपनी अपने पतिके इन दोषोंपर नाराजी प्रकट कर शक्तिके बाहर उनकी सेवा करता है-बात बातमें सके । परन्तु यदि ऐसे बदकार पुरुषोंकी स्त्रियाँ अपनी नम्रता दिखाता है। परंतु बराती उस भी यदि अकस्मात पराये पुरुषकी तरफ देख भी लें पर ऐसी हुकूमत करते हैं-ऐसी लूट मचाते हैं तो वही पुरुष उनको जानसे मार डालनेके मानो उन्होंने उस ग्रामको लडाईमें जीता हो। योग्य ठहराते हैं और गैरतमें आकर कुछका पुरुषोंकी स्वार्थवासना इतनेसे ही तृप्त नहीं कुछ कर डालते हैं। मानो कुशीलका दोष हुई-उनको स्त्रियोंका खैडाका खेडा जमा करने स्त्रियोंहीके लिए है-पुरुष उससे बिलकुल पर भी संतोष नहीं हुआ, बल्कि इससे उनकी बरी हैं। यदि इस बातपर आधिक विचार किया कामवासना यहाँ तक बढ़गई कि विवाहिता जाय तो उनका यह ढंग उनके विचारके अनुत्रियोंके सिवा उन्होंने अन्य बाजारु वा ग्राम्य- सार ठीक ही मालूम होता है; क्योंकि यदि स्त्रियोंसे इन्द्रियतृप्ति करना अनुचित-पाप- उनको धर्मका खयाल होता तो वे आप ही कुशीजनक नहीं समझा। पुरुष बेधड़क रंडियोंका लमें क्यों फँसते और यह सिद्धान्त ही क्यों नाच कराते हैं, बाप बेटा और बाबा पोता सब करते कि पुरुषोंके लिए कुशीलका दोष ही नहीं इकट्ठे होकर उन रंडियोंकी ओर बुरी दृष्टिसे है। अतएव वह धर्मके विचारसे स्त्रीको दोषी नहीं देखते हैं और असंकोच भावसे उनसे हँसी- ठहराते, बल्कि वह इस कारणसे दोषी ठहराते हैं कि मजाक करते हैं । पुरुषोंने इस घृणित शौकको वह उनकी धन-सम्पति है-उनकी दासी और गुयहाँ तक महत्त्व दिया है, कि वे जब किसी लाम है। इसी कारण किसी स्त्रीका पराये पुरुषकी स्त्रीको विवाह करके लाना चाहते हैं, और जि- ओर देखना विद्रोह है-पुरुषके आधिकारके बहार सके लिए बिरादरीके मुखियोंको साथ लेजाना जाना है और इसी कारण स्त्रीको यह अधिआवश्यक होता है, उस समय भी रंडियोंको कार नहीं है, कि पुरुषको परस्त्रीसे अनुचित साथ ले जाना और उनका नाच कराना अत्यन्त संबंध करनेसे रोके । क्योंकि अन्य-स्त्रियोंके साथ आवश्यक समझते हैं, क्योंकि रंडियोंको साथ सम्बन्ध करनेसे पुरुष अपनी सम्पत्तिका अधिक लिये बिना न तो बिरादरीके लोग बरातमें जाने- विस्तार करता है। यदि पुरुष धर्मका दावा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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