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________________ எய்யாயாயாயாயாயாயாயாக जैनहितैषी ३१२ जनाहिता A अन्तमें विद्यासागर शालाओंके निरीक्षक- घर जाते और उसकी शैय्याके पास बैठ कर इन्स्पेक्टर-नियुक्त किये गये । इन्होंने बंगाल उसकी सेवा करते थे। जब ये धनवान हो गये तब प्रान्त भरमें दौरा किया और हर जगह शालायें सैकड़ों दीन विधवाओं और असहाय अनाथोंका खोलीं । इसके बहुत समय पूर्व इन्होंने अपनी पोषण करने लगे । इनका नाम बंगाल के प्रत्येक जन्मभूमिमें एक मुफ्त शिक्षाकी शाला, एक स्त्री पुरुषकी जिव्हापर रहने लगा । अमीर गरीब रात्रि शाला, एक कन्याशाला और एक औषधा- ऊंच नीच सब इनपर एकसी प्रीति रखते थे। लय खोल रक्खे थे । और इन सबका खर्च कोई भी भिक्षुक कभी इनसे निराश होकर नहीं अपनी ही जेबसे देते थे। लौटा । इनने अपने फाटक पर कभी किसी दरतीन वर्ष इन्स्पेक्टर रहनेके पश्चात् इन्होंने वान् या चौकीदारको नहीं रक्खा, इस विचारसे कि नौकरीसे स्तीफा दे दिया, और शेष जीवन कदाचित् कोई दीनपुरुष जो इनसे मिलना चाहे भर, इन्होंने अपना, अपने कुटुम्बका तथा अपने कहीं बैरंग ही न लौटा दिया जावे । एक वाक्यमें माता पिताका पोषण, पुस्तकें लिख लिख यह कह सकते हैं कि, विद्यासागर दयाके अवतार कर किया। थे। उनने अपना जीवन परोपकारके लिए उत्सर्ग ये इतनी शुद्ध सादी और सुन्दर भाषा कर दिया था। लिखते थे और इनके लिखने की शैली ऐसी विद्यासागरकी अपने पिता पर बहुत प्रीति अच्छी थी कि इनकी पुस्तकें हर जगह पढ़ी थी। उन्हें वे अपनी छात्रावस्थामें सब पारितोजाने लगीं और इससे इनको खासी षक और छात्रवृतियाँ, ज्योंकी त्यों दे दिया आमदनी हुई। करते थे । ज्योंही उनको एक नियत वेतन देशके शासकगण और मंत्री लोग कानन मिलने लगा त्योंही वे उसमेंसे आधा अपने बनाते समय, हिन्दू रीति-रिवाजोंके सम्बन्धमें, पिताको देने लगे, और उनके जीवन भर, अपनी इनकी सलाह हर बातमें लेते थे। इनकी बहुत कमाई का भाग उन्हें देकर, उनका आरामसे, भारी प्रतिष्ठा की जाती थी क्योंकि सब लोगों- पोषण करते रहे। को ज्ञात था कि ये अपने समयके सबसे बुद्धि- वे अपनी मातापर, सच्चे हृदयसे प्रेम मान, अच्छे और सबसे विद्वान् पुरुषों में से हैं। रखते थे, और उनकी सक्ष्म आज्ञाका भी पालन बीस वर्षके पश्चात् भारत सरकारने इन्हें सी. करते थे। एक समय उनकी माताने जो कि आई. ई. की पदवीसे विभूषित किया। अपने गाँव पर थीं, इन्हें देखनेको बुला भेजा। ___ विद्यासागर बहुत ही दयालु और उदार पुरुष श्रावणका महीना था । वर्षा अपनी युवावस्थाथे । बालकपनसे ही ये दीन और दुःखियोंकी में थी। नदी नालोंका खूब पूर चढ़ रहा था । अपनी शक्ति भर सहायता करते रहे । शालामें ऐसे समयमें विद्यासागर पाँवपियादे ही चल जब ये किसी दिन भूखे बालकको देखते थे दिये । मार्गमें इन्हें दो नदियें मिलीं; परन्तु पार तो अपने थोड़ेसे भोजनमेंसे कुछ भाग उसे दे उतरनेके लिए वहाँ नौकाका निशान तक नहीं दिया करते थे। यदि इनकी शालाका कोई वि- था। रात्रिका समय था, तो भी विद्यासागर अपनी द्यार्थी बीमार होता तो बालक ईश्वरचन्द्र उसके जान हथेली पर लेकर, दोनों को तैर गये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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