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________________ २८६ जैनाहतैषी पड़कर कवि और करता ही क्या ? अपने हृद्गत भावोंको दूसरे कविके शब्दों, वाक्यों और आशयोंके द्वारा रुद्ध हुए मार्गमेंसे प्रगट करनेके सिवा उसे कोई गति ही न थी । ऐसी परिस्थितिमें काव्यमें क्लिष्टता आना ही चाहिए। किन्तु इस पराधीन कार्यमें भी कविने जो काव्यकौशल दिखलाया है और जो मार्मिकता दिखलाई है, उससे अनुमान हो सकता है कि यदि कवि अपने भावोंको स्वच्छन्दतापूर्वक प्रकट करनेका-अपनी भावधाराको बिना बाधाके बहानेका मौका पाता, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह काव्य और भी ऊँचे दर्जेका काव्य बन जाता । इस काव्यके बनाने में कविको कितना परि श्रम करना पड़ा होगा इसका अनुमान पाठक तब कर सकेंगे, जब मेघदूतको सामने रखकर इस काव्यको पढ़ेंगे और मेघदूतके चौथे चरणोंके मूल भावके साथ इसके चौथे चरणोंके भावोंको मिलावेंगे । मेरी सप्रझमें यह काम वैसा ही कठिन है जैसा कि आमके एक पौधेको काटकर उसकी पींढ़में दूसरे पौधेकी कमलको जोड़ देना और दोनोंके शरीरको रसको और चेतना शक्तिको एक कर देना। पूरे काव्यका पाठ करके हम देखते हैं कि कविने इस कठिन कार्यमें अच्छी सफलता प्राप्त की है । इस काव्य के कर्त्ताका नाम विक्रम है । वह साङ्गणका पुत्र था | नेमिचरितके अन्तिम श्लोकसे कविका केवल इतना ही परिचय मिलता है । वह किस समय हुआ, किस वंशमें हुआ, किस स्थानमें उसका निवास था, उसने और किन किन ग्रन्थोंकी रचना की, इत्यादि बा - तोंका कुछ भी पता नहीं चलता । यदि उसने अपने किसी दूसरे ग्रन्थमें अपना परिचय दिया हो अथवा उसके समकालीन या पिछले किसी ग्रन्थमें उसका उल्लेख हो, तो इस समय तक ऐसे किसी ग्रन्थका हमें दर्शन नहीं हुआ । संस्कृतकी Jain Education International रचनाशैली से अथवा काव्य में वर्णन की हुई बातों से भी कविके समयका थोड़ा बहुत अनुमान किया जा सकता है; परन्तु न तो इतनी हमारी शक्ति ही है और न हमें इतना अवकाश ही है कि इस कठिन कार्यको हम कर सकें । विक्रमकवि जैनधर्मानुयायी था, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह दिगम्बर सम्प्रदायका माननेवाला था या श्वेताम्बर सम्प्रदायका । काव्यवर्णित बातों से भी इस बातका निश्चय न हो सका । क्योंकि इसमें जो कुछ कहा गया है वह साम्प्रदायिक मतभेदकी सीमा से बाहर है । गुजरातीके एक ऋषभदास नामके कवि हो गये हैं । वे श्वेताम्बर थे । उन्होंने अपने पिताका नाम 'संघवी सांगण' लिखा हैं । यदि उन्हीं सांगणके ये भी पुत्र हैं तो फिर इन्हें भी श्वेताम्बर मानना पड़ेगा । पर यह जानने की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं है । दोनों ही सम्प्रदायके काव्यप्रेमी जन, अपना अपना समझ इसके रसका आस्वादन कर सकते हैं । कविका क्षेत्रज्ञान | मेघदूत यक्षने अपनी प्रेयसी के पास सन्देशा भेजने के लिए बादलोंको मार्ग बतलाया है कि तुम अमुक अमुक स्थानोंसे होकर जाओगे, तो उसके समीप पहुँच जाओगे । इस मार्गसूचन में कालिदासने अपने भूगोलज्ञानका विलक्षण परिचय दिया है । विद्वानोंने निश्चय किया है कि उनके वर्णन में देशस्थानसम्बन्धी कोई भूल नहीं है, मानो कालिदासने स्वयं पर्यटन करके उक्त सब स्थान और नगरादि देखकर अपना काव्य लिखा था । यही बात नेमिचरितमें भी है । पहले पहले जब हमने इस काव्यको पढ़ा और इसमें गोमती वेत्रवती आदि नदियोंके नाम देखे, तब हमें क्षेत्रज्ञान के सम्बन्धमें अश्रद्धा हो गई । कविके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522826
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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