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आयु घट तृष्णा बढ़
१ आयु पल-पल क्षीण हो रही है लेकिन पापबुद्धि बढ़ रही है - यही विचित्रता है ।
२ साधना की पहली शर्त है— आशा का परित्याग, आकांक्षा, तृष्णा से मुक्त होना ।
३ जब आदमी इच्छाओं का दास बन जाता है, प्रत्येक इच्छा की पूर्ति में रत रहता है, इन्द्रियों के पीछे-पीछे चलता है वह अपने अमूल्य जीवन को नीरस बना डालता है, रस निचुड़े हुए ईख के छिलके की भांति उसका जीवन खोखला बन जाता है । तब केवल मक्खियां भिनभिनाती हैं ।
४ कामना सागर की भांति अतृप्त है, ज्यों-ज्यों हम उसकी आवश्यकता पूरी करते हैं त्यों-त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है।
५ तृष्णा मनुष्य को आंखों वाला अन्धा बना देती है, मानों काली रात ही है ।
६ मन प्राप्त के प्रति आकर्षण अनुभव नहीं करता, अप्राप्त की और जाता है ।
७ आपत्ति मानव बनाती है और दौलत दानव ।
८ मनुष्य जब प्रार्थना करता है तो चाहता है कुछ चमत्कार हो जाए ।
& निर्धन वह नहीं जिसके पास उपयोग के साधन कम हैं वरन् वह है जिसकी तृष्णा अधिक है ।
१० यौवन में संयमी है, वही वास्तव में संयमी है । क्योंकि वृद्धावस्था में धातुओं के क्षीण होने पर किसे शांति नहीं हो जाती ?
११ गरीब वही होता है, जिसकी तृष्णा विशाल है । मन में सन्तोष होने पर कौन धनवान है और कौन गरीब ?
आयु घट तृष्णा बढ़
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