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३६२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
उत्तम-मध्यम अन्तरात्मा - इसमें उन आत्माओं का समावेश है, जो श्रेणी चढ़ना प्रारम्भ करते हैं। साधक आध्यात्मिक विकास के मार्ग में दो मार्गों से आरोहण कर सकता है- १. उपशमश्रेणी और २. क्षपकश्रेणी।
कुछ साधक विषयों और कषायों को उपशमित करते हुए, अर्थात् दबाते हुए अपनी विकास यात्रा करते हैं। जैसे गंदे पानी में फिटकड़ी घुमाने पर गंदगी नीचे जम जाती है और जल स्वच्छ दिखाई देता है, किंतु थोड़ा भी हिलने पर पुनः गंदा हो जाता है, उसी प्रकार उपशमित विषयकषाय पुनः अभिव्यक्त होकर साधना की उच्चतम अवस्था से साधक को गिरा देते हैं, पर जो साधक कर्मों का क्षय करते-करते, अर्थात् क्षपकश्रेणी से अपनी यात्रा प्रारम्भ करते हैं और बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं, इस प्रकार वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा के पद पर पहुंच जाते हैं।
उत्तम-मध्यम-अन्तरात्माओं में, उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाली आत्माओं में आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती आत्माएँ आती हैं तथा जो क्षपकश्रेणी से आरोहण करते हैं, उन आत्माओं में आठवें से दसवें गुणस्थान तक की आत्माएँ होती हैं। इन अन्तर आत्माओं को उत्तम-मध्यम कहने का कारण यही है कि इनमें किसी न किसी रूप में संज्वलन कषाय की सत्ता बनी रहती है।
उत्कृष्ट अन्तरात्मा - उत्कृष्ट अन्तरात्मा में बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर रही हुई आत्माएँ आती हैं। यहाँ मोहनीयकर्म की सत्ता पूर्णतः समाप्त हो जाती है, इसलिए इन्हें क्षीणमोहवीतराग भी कहा जाता है। यह शीघ्र ही परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने आठदृष्टि की सज्झाय में छठवीं कान्तादृष्टि तीव्र शुद्धि वाली बताई है। इस दृष्टि में "तारे के प्रकाश के समान ज्ञान होता है। तत्त्वबोध नामक गुण की तथा धारणा नामक योगांग की प्राप्ति होती है तथा अन्य श्रुत के परिचय और सहवास का त्याग होता है।" ६६' इसमें देशविरति श्रावक
और छठे सातवें गुणस्थानवर्ती साधु भी आ जाते हैं। प्रभादृष्टि में सातवें-दसवें गुणस्थानवर्ती मुनि आते हैं। "इसमें ज्ञान सूर्य की प्रभा के समान होता है और
६६. छट्टी दिट्ठी रे हवे कान्ता कहुँ, तिहां ताराभ प्रकाश। तत्त्वमीमांसा रे दृढ़ होये, धारणा नही अन्यश्रुत नो संवास ।।१५।।
__ -कान्तादृष्टि ६, आठदृष्टि की सज्झाय, उ. यशोविजयजी
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