Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 391
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३८५ तक रह सकता है, अतएव छठवें और सातवें दोनों गुणस्थान की स्थिति मिलाकर देशोनकरोड़पूर्व की है। इसके पश्चात् जीव को छठवें, सातवें गुणस्थान का परित्याग करना पड़ता है, क्योंकि अधिक से अधिक संयमपालन की अवधि देशोनपूर्वकोटि होती है और ये दोनों गुणस्थान संयमी जीवों के ही होते हैं। ७. अप्रमत्तसंयतगुणस्थान - "इस गुणस्थानवर्ती साधक में संज्वलन कषायों का उदय मंद होता है तथा निद्रादि प्रमाद का अभाव होता है,"७४३ इससे आत्मा, अप्रमादी या अप्रमत्त महाव्रत बन जाती है। जब साधक में आत्मरमणता होती है तब वह सातवें गुणस्थान में चढ़ता है और प्रमाद का उदय आने पर पुनः छटे गुणस्थान पर आ जाता है। वर्तमानकाल में भरतक्षेत्र एवं ऐरावतक्षेत्र में कोई भी साधु सातवें गुणस्थान के ऊपर के गुणस्थानों पर आरोहण नहीं कर सकता है। अप्रमत्तसंयत दशा का काल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है। छठवें सातवें दोनों का साथ मिलाकर जघन्य काल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्व करोड़ वर्ष है। ८. निवृत्ति (अपूर्वकरण) गुणस्थान - पूर्व में कभी नहीं आए ऐसे आत्मा के निर्मल परिणाम इस गुणस्थानवर्ती साधक में होते हैं, जिससे इस गुणस्थान को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। यह आध्यात्मिक-साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस गुणस्थान का दूसरा नाम निवृत्तिकरण भी है। निवृत्ति, अर्थात् असमानता, फेरफार, परस्पर अध्यवसायों की चित्र-विचित्रता, भेद, भिन्नता। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उसके असंख्यात समय होते हैं। इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि तो एक समान नहीं होती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के अध्यवसायों में भी असंख्यागुनी न्यूनाधिक विशुद्धि होती है। इस प्रकार सर्वसमयों में हीनाधिक विशुद्धि वाले अध्यावसाय के स्थान होने से इस गुणस्थानक का दूसरा नाम निवृत्तिकरण है। भावों की विशुद्धि के कारण इस गुणस्थानक से आत्मा गुणश्रेणी पर आरूढ़ होने की तैयारी करती है। श्रेणी दो प्रकार की होती है- १. उपशमश्रेणी और २. क्षपकश्रेणी। मोह को उपशान्त कर आगे बढ़ने वाला जीव उपशमश्रेणी से आरोहण कर ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है यहाँ मोह सर्वथा उपशान्त रहता है, ७५३ गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक-३२ (अ) समवायांगवृत्ति, पृ. २६ (ब) गोम्मटसार, पृ. ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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