Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 411
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४०५ भौतिक सुख दिखने में चाहे जितने सुन्दर हो, परंतु वे दुःखमिश्रित है विनाशी हैं, और पराधीन है। वे शाश्वत नहीं और स्वाधीन नहीं- इस सत्य को अगर स्वीकार कर लिया जाय तो पदार्थ के प्रति आसक्ति कम हो सकती है। उ. यशोविजयजी ने अन्यत्व, एकत्व और अनित्यता के बोध रूपी इन तीन सूत्रों के द्वारा मनुष्य के भोगवादी दृष्टिकोण के परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर किया है। अब आवश्यकता है कि इन सूत्रों को इतना समर्थ और व्यावहारिक बनाया जाए कि व्यक्ति की उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि बदले और वह सादा जीवन और उच्च विचार को अपनावें। २. मानसिक तनाव : मानसिक तनाव या अशांत चित्तवृत्ति भी वर्तमान युग की एक गंभीर समस्या है, जिससे आज प्रायः समग्र विश्व के मानव ग्रसित है। अशान्ति की इस स्थिति में भी शान्ति की खोज हेतु मनुष्य अथक प्रयास कर रहा है किन्तु अन्ततः असफलता ही प्रायः हाथ लगती है। आज के इस वैज्ञानिक युग में मनुष्य अन्य बहुत कुछ पाया, किन्तु शान्ति को प्राप्त नहीं कर सका। अशान्ति का प्रश्न जहाँ का तहाँ और ज्यों का त्यों सामने खड़ा है। मनुष्य के भीतर जो आग है वह बाहर के किन्हीं भी उपायों से बुझ नहीं सकती हैं। मनुष्य के भीतर जो तृष्णाजन्य दुःख है वह बाहरी सुख सुविधा के साधन से समाप्त नहीं हो सकता है। मनुष्य के भीतर जो अंधकार है बाहर की कोई भी रोशनी उसे नष्ट करने में असमर्थ है। लेकिन अब तक यही हुआ है, आग भीतर है और बुझाने की कोशिश बाहर है। विज्ञान अकेला जीवन को शांति, आनंद देने में समर्थ नहीं है और न कभी समर्थ हो सकेगा। वह सुविधाएँ दे सकता है और सुविधाएँ ज्यादा से ज्यादा दुःख के विस्मरण में क्षणिक रूप से सहयोगी हो सकती है। सुविधाओं से दुःख मिटता नहीं है केवल छिपता है। सुविधाओं को जुटाने के लिए एक दौड़ पैदा होती है जिसका कोई अंत नहीं और यह दौड़ ही एक तनाव अशांति और दुःख बन जाती है। यह अंतहीन दौड़ ही विक्षिप्तता बन जाती है। तनाव से जन्म होता है नशे की प्रवृत्ति का और अपराध की वृत्ति का। “आज मनुष्य का मानसिक तनाव इतना बढ़ गया है कि शायद इतना पहले कभी नहीं था। अमेरिका आज की दुनिया का सबसे धनी देश है। वहाँ पर खाने पीने पहनने की कोई कमी नहीं है। इसके उपरान्त भी वहाँ मानसिक तनाव के रोगियों की संख्या दुनिया में सबसे नान्योऽहं न ममान्ये चेत्यदोमोहास्त्रमुल्वणम ।।२।। -वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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