Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 440
________________ ४३४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री प्रदर्शन की भावना और भौतिकवादी जीवन दृष्टि प्रमुख बन जाती है वहाँ भ्रष्टाचार अपनी जड़ जमा लेता है। उ. यशोविजयजी ने भौतिक पदार्थों में आसक्ति तथा प्रदर्शन से मुक्त जीवन का संदेश दिया है कि “पर पदार्थ के निमित्त से जो संतोष होता है वह तो याचना कर लाये हुए अलंकार के समान है। वास्तविक आत्मिक संतोष तो उत्तम रत्नों की चमक के समान है । ७६८ बेईमानी से कमाई हुई भौतिक सम्पदा, यश, कीर्ति अल्पकालीन है। वास्तव में यह तो उधार लाए हुए अलंकार के समान है। इससे वास्तविक आनंद की, पूर्णता की प्राप्ति संभव नहीं है। उत्तम रत्न की चमक के समान सद्बुद्धि, सत्प्रवृत्ति, सद्गुणों से ही . वास्तविक आनंद की प्राप्ति होती है। नम्रता, सरलता, निर्लोभता, आत्मा की स्वाभाविक सम्पत्ति है। अतः हमें भोगोपभोग के साधनों और सुविधाओं के पीछे उन्मत्त न बनकर, जीवन की आवश्यकताओं और विलासिता में अन्तर करना होगा । भ्रष्टाचार विलासिता पूर्ण जीवन में ही पनपता है सादगीपूर्ण आध्यात्मिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की आवश्यकताएँ इतनी कम होती है कि उसे अपने सामान्य जीवन जीने के लिए बहुत अधिक अर्थ की अपेक्षा नहीं होती है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में जो सादा जीवन और उच्च आदर्श की बात कही गई है वह भ्रष्टाचार के निवारण के लिए एक आदर्श वाक्य हो सकता है। भ्रष्टाचार का दूसरा मुख्य कारण नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति . निष्ठा का अभाव है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के कारण व्यक्ति की धर्म अध्यात्म और नैतिकता के प्रति आस्थाएँ कम हुई है । यह मूल्य निष्ठा की कमी भी भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण हैं। क्योंकि व्यक्ति ऐहिक जीवन को ही सब कुछ मान लेता है। विज्ञान के परिणामस्वरूप स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय भी अब नहीं रहा । व्यक्ति की यही जीवन दृष्टि होती है कि वह येन केन प्रकारेण जितनी अधिक भौतिक सुख सम्पत्ति प्राप्त कर सके उसे करना चाहिए। उसके लिए अध्यात्म, धर्म और नैतिकता का कोई मूल्य नहीं। परिणामस्वरूप वह भ्रष्टाचार की ओर उन्मुख होता है। प्राचीन समय में धर्म और ईश्वर का भय था जो व्यक्ति को भ्रष्ट आचरण से विमुख करता था। विज्ञान के कारण वह भय तो समाप्त हो गया। अतः हमें व्यक्ति में ऐसी मूल्य निष्ठा जागृत करना होगी जिसके कारण वह भ्रष्टाचार से विमुख हो सके। संक्षेप में आध्यात्मिक मूल्य निष्ठा का विकास भ्रष्टाचार के निराकरण में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हो सकता है। बेईमानी ७६८. पूर्णता या परोपाधेः सा याचितकमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव जात्यरत्नविभानिभा । । २ । । ज्ञानसार १/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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