Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 443
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४३७ रेखा जब केन्द्र का परित्याग करके चलती है तो वह एक दूसरे को काटने लगती है । यही स्थिति सम्प्रदाय की है। यदि सम्प्रदाय धर्म के सम्मुख रहे तब तो झगड़े का सवाल ही नहीं लेकिन धर्म से विमुख हो जाने पर सम्प्रदाय आपस में टकराते हैं।”८०० सम्प्रदायों का आग्रह ही एक दूसरे के प्रति द्वेष या घृणा उत्पन्न करता है। “अमेरिका के सुप्रसिद्ध मनोविद् गौर्डन आलपोर्ट के मतानुसार आज धार्मिक क्षेत्र में जितनी भ्रान्तियाँ और समस्याएँ दृष्टिगोचर हो रही है, उनके पीछे एक ही तथ्य काम करता आया है- जातीय मताग्रह जिसे उन्होंने 'रेसियलबायगोट्री' के नाम से सम्बोधित किया है। धर्मान्धता इसी को कहते हैं। संसार की हर जाति के लोगों को अपना ही धर्म और मत पसन्द है । उनके अन्तराल में धर्मान्धता की प्रवृत्ति इस प्रकार समाविष्ट हो चुकी है कि दूसरों की उचित, उपयुक्त एवं उपयोगी बात को भी सहन कर सकने में अपनी असमर्थता ही प्रकट करते हैं और आग बबूला होकर उबल पड़ते हैं। असहिष्णुता की ये प्रवृत्तियाँ मानवीय सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा देती है और परस्पर मनमुटाव और मतभेद का असभ्य व्यवहार खड़ा कर देती है, यह किसी भी धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए घातक है। ' असहिष्णुता का दुर्गुण मनुष्य को एक प्रकार से मानसिक रुप से विक्षिप्त एवं विकलांग बना देता है उसके सौंचने का दृष्टिकोण अत्यंत संकुचित होता है। डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है कि " सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रंग में देखना चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रंग में दिखाई देता है उसे वह गलत मान लेता है। यह समझना एकदम अनुचित है कि किसी एक महापुरुष ने जो कोई खास तरीका किसी देशकाल अथवा अवस्था के लिए बताया, वह बलपूर्वक सब लोगों से, सब जगह, सब परिस्थितियों में मनवाया ही जाय और बाकि सबकी बातें मिथ्या कहकर मिटा दी जाये। " ८०१ ८०२ " यदि जो लोग अपने धर्म का प्रचार करना भी चाहते हैं तो वे शिष्टता और प्रेम से अपने धर्म की विशेषताएँ बताकर अन्य धर्म की निन्दा किये बिना, ८०० डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ : धर्म का मर्म, पृष्ठ ३४५ - डॉ. सागरमल जैन ८०१. डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ धर्म का मर्म, पृष्ठ ३४६ -डॉ. सागरमल जैन ८०२. डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ : धर्म का मर्म, पृष्ठ ३४६ -डॉ. सागरमल जैन . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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