Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 449
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४४३ * : * पर्दाप्रथा का त्याग करना चाहिए। आरोग्य प्रशिक्षण, काव्य एवं नाट्य कला आदि अनेक रचनात्मक गतिविधियों का प्रशिक्षण लेना चाहिए। गृह व्यवस्था के अगणित पक्षों का ज्ञान होना चाहिए। प्रेम, आनंद, करुणा, वात्सल्य, सेवा, त्याग, बलिदान का विस्तार करके स्त्रियाँ अपना चहुँमुखी विकास कर सकती है तथा विश्व के विकास में विश्व शांति में अपना अनूठा सहयोग प्रदान कर सकती है। स्त्री अपना स्त्रीत्व खोकर, पुरुषों का अनुकरण करने लग जाए तो इससे उसकी स्वयं की हानि तो होगी जीवन का सारा आनंद नष्ट हो जाएगा। अतः हमेशा यह याद रखना चाहिए कि - नारी नर से कम नहीं परंतु वह पुरुष के सम नहीं। यह अन्तर व्यावहारिक स्तर पर ही हैं किंतु आध्यात्मिक स्तर ऊपर अथवा आत्मिक स्तर पर दोनों की आत्मा समान ही है। विश्व की समस्याओं का अध्ययन करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि अधिकांश समस्याएँ मनुष्य ने स्वयं ही पैदा की है। लगभग समस्याओं का मूलभूत कारण भौतिकवादी जीवन है। वर्तमान समय में विकसित देशों की जनता की समूची जीवनशैली भौतिक विकास के आसपास केन्द्रित है। आध्यात्मिक मूल्यों को परिधि के बाहर कर दिया हैं। भौतिकवादी जीवन पद्धति हिंसा के बिना गतिशील नहीं हो सकती है। हिंसा का प्रमुख साधन है परिग्रह धन संपत्ति एवं वैभव के उत्तुंग शिखरों पर आरोहण करने के लिए प्रयत्नशील मानवों को देखकर उ. यशोविजयजी कहते हैं - नपरावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः।।१।। न जाने परिग्रह रूपी यह ग्रह कैसा है, जो राशि से दुबारा लौट कर नहीं आता, कभी वक्रता का परित्याग नहीं करता और जिसने त्रिलोक को विडंबित किया है? त्रिलोक को सदा सर्वदा अशांत और उद्विग्न करने वाले परिग्रह नामक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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