Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ ४३२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री बलवान्, जितेन्द्रिय, शिक्षक, दण्ड प्रयोग करने वाला, चतुर, शिल्पविद्या में निपुण तथा प्रभावशाली व्यक्तित्त्व वाला नेता होता है।"७६७ कुछ कमियां होने के बाद भी आज सबसे श्रेष्ठ शासन प्रणाली लोकतंत्रीय प्रणाली है। इसलिये सारे विश्व में लोकतंत्र फैलता जा रहा है। लोकतन्त्र को चलाने वाले लोग अध्यात्म को अपने साथ जोड़ ले तो लोकतन्त्र सोने में सुगन्ध बन जाएगां पूरे विश्व की मानवजाति के लिए वरदान बन जाएगा। क्योंकि इसमें एक नहीं अनेक समस्याओं का समाधान सन्निहित है। (८) बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार एक भीषण समस्या - सामाजिक व्यवस्थाओं और धर्म आदेशों के विरूद्ध जो भी आचरण किया जाता है वह भ्रष्टाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में धर्मविरुद्ध अनैतिक उपायों के द्वारा धन सम्पत्ति और वस्तु की प्राप्ति तथा वासना की पूर्ति सभी भ्रष्टाचार में संनिहित है। यदि अधिक व्यापक अर्थ में ले तो अपनी योग्यता और अपने कार्य के प्रतिफल के रूप में नियमानुसार जो व्यवस्था है उसका उल्लंघन करना भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार राज्यविरूद्ध, धर्मविरूद्ध और नैतिकता के विरुद्ध आता है। यद्यपि भ्रष्टाचार एक सामान्य शब्द है किंतु देश विशेष, काल विशेष और धर्म विशेष के आधार पर इसकी परिभाषाओं में अन्तर पाया जाता है। भ्रष्टाचार का सम्बन्ध केवल धन, धनार्जन के साधन या अनैतिक तरीके से धन की उपलब्धि तक ही सीमित नहीं है, चारित्रिक दुराचार, यौनशोषण आदि भी भ्रष्टाचार की ही कोटि में आते हैं। आज समस्त राष्ट्र ही नहीं, वरन् समस्त विश्व भ्रष्टाचार की समस्या से त्रस्त है। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो इसके प्रभाव से दूषित न हो। आज वैभव और विलास को सर्वोपरि मान्यता मिली हुई है। विभिन्न प्रकार के प्रयासों द्वारा इन्हीं दोनों को अधिक मात्रा में जल्दी से जल्दी हस्तगत कर लेने के लिये छटपटाहट देखी जाती है। इस लोभ की भूमि पर जन्म होता है भ्रष्टाचार का। भ्रष्टाचार का तात्पर्य केवल गैरकानूनी धन लाभ से नहीं है बल्कि उन सभी पद्धतियों से है जो ईमानदारी निष्पक्ष और सामान्य प्रशासन के सरल संचालन में रुकावट पैदा करती है। बहुत से विभाग तो भ्रष्टाचार के गढ़ ही है। प्रत्येक प्रार्थना पत्र परमिट, पदोन्नति, स्थानान्तरण के मूल्य निश्चित है। कार्यालयों में लोग ७६७. वाग्गी प्रगल्भः स्मृतिमानुदग्रा बलवान् वशी नेता दण्डस्य निपुणः कृतशिल्पः सुविग्रह ।। - कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग ४, श्लोक १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460