Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 422
________________ ४१६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री " कषायों का आवेश नहीं रहता है । ७८३ विषय-भोग तथा कषायों के अभाव में अपराध भी नहीं पनपते है। निरंकुश भोगवाद अपराधी प्रवृत्तियों को बढ़ाता है। अपराध करने पर अपराधी को पकड़ना और सजा देना एक बात है और व्यक्ति अपराध की ओर प्रवृत्त ही न हो ये दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। दूसरे तथ्य के साथ ही अपराध कम होते हैं पहले से नहीं । अपराधी प्रवृत्ति भय, आशंका, अविश्वास, घृणा और लोभ की अधिकता से बढ़ती हैं। इन पर रोक लगाने का काम अन्तःकरण की वे आस्थाएँ ही कर सकती है जिन्हें आस्तिकता धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता, सद्भावशीलता, संस्कारसम्पन्नता के रूप में जाना जाता है। सामाजिक वातावरण में ही करुणा, संवेदना, कोमलता की भावनाएँ उभारने वाले तत्त्व पर्याप्त मात्रा में रहें तो अपराध की प्रवृत्तियाँ कभी भी नहीं बढ़ सकती हैं। साथ ही मुख्य आवश्यकता उन दुष्प्रवृत्तियों की प्रेरणा के आधारों को ही समाप्त करने की है जो इन अपराधों तथा न्याय व्यवस्था में होने वाली चालाकियों के लिए उत्तरदायी हैं। शिक्षा के क्षेत्र में विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों की सैकड़ों सैंकड़ों शाखाएँ हैं कही दो सौ विभाग है कही चार सौ भी है किन्तु एक भी फैकल्टी चरित्र निर्माण या अहिंसा प्रशिक्षण के लिए नहीं हैं। इसका अर्थ है- विद्या की ये शाखाएँ जीविका के साथ जुड़ी हुई मान ली गई है और चरित्र के विषय को जीविका से बाहर रख दिया गया इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा बढ़ने के साथ-साथ संस्कार नहीं बढ़े। विद्या की किसी भी शाखा में जाएँ आचरण या चरित्र की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होना चाहिए। इसके लिये प्राथमिक कक्षाओं में एक स्वतंत्र विषय होना जरुरी है जिससे विद्यार्थियों को चरित्र विज्ञान, नैतिकता एवं अध्यात्म की जानकारी मिलें । अहिंसा, सत्य आदि अध्यात्म के समग्र पक्षों का ज्ञान देना उनका प्रयोग करना अनिवार्य होना चाहिए। बी. ए. ( ग्रेजुएशन) और एम. ए. ( पोस्ट ग्रेजुएशन) में उनके विषयों में ही चरित्र विज्ञान का भी समावेश हो । आध्यात्मिक भावनाओं की प्रचुरता का प्रतिफल यह होता है कि व्यक्ति अपने लिए कठोर और दूसरों के लिए उदार बनता है। स्वयं संयम और सादगी का त्याग और तपस्या का आदर्श अपनाकर बहुत ही स्वल्प साधनों में काम चला ७८३. येषामध्यात्मशास्त्रार्थ तत्त्वं परिणतं हृदि । कषायविषयावेशक्लेशस्तेषां न कर्हिचित् ।। १४ ।। - अध्यात्मसार १/१४ उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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