Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 427
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४२१ अंटार्कटिक महाद्वीप के ऊपर ओजोन की छतरी में एक बड़ा छेद हो गया है। इसमें दूसरा छेद उत्तरी ध्रुव प्रदेश के ऊपर भी हुआ हैं। ये छेद वैज्ञानिक जगत् को चिंतातुर बनाए हुए हैं। सुपरसोनिक विमान और नाभिकीय विस्फोट ओजोन की परत के लिए खतरनाक है। रेफ्रिजरेटर और वातानुकूलन की प्रणाली के लिए जिन गैस का प्रयोग होता है वे भी ओजोन की परत के लिए हानिकारक है। ऐसा कहा जाता है कि सतत कोलाहल होने वाला ध्वनि प्रदूषण मनुष्य के लिए मृत्यु का एक छोटा एजेंट है और वायु प्रदूषण बड़ा एजेंट है। 'वनस्पतिकाय की हिंसा से अनेकविध दुष्परिणाम सामने दिखाई देते है। एक ओर उससे प्राणवायु का नाश हो रहा है, दूसरी ओर भूक्षरण को बढ़ावा मिल रहा है तथा उसका उर्वरापन घट रहा है, तीसरी ओर वर्षा के अनुपात में अन्तर आ रहा है तो चौथी ओर जनजीवों का विनाश तेजी से बढ़ रहा हैं। मानव को जमीन की आवश्यकता हुई। उसने जंगलों को नष्ट किया, बस्ती बसायी, कहीं बांधों के बड़े-बड़े कृत्रिम जलाशय बनाये तो कहीं पहले से बने हुए तालाबों को पाट दिया। सचमुच मनुष्य ने प्रकृति का जो विनाश किया है वह अमाप्य है। इससे प्राणवायु के उत्पादन में भारी गिरावट आई है। प्रदूषण विश्व मानवता के विरुद्ध एक हमला है। विज्ञान में पर्यावरण के लिए इकोलॉजी शब्द आया है इसका अभिप्राय यह है कि प्रकृति के सभी पदार्थ एक दूसरे पर निर्भर है, एक दूसरे के पूरक है। वे जहाँ कोई एक भी पदार्थ अपनी प्रकृति के या अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करता है प्रकृति में असंतुलन पैदा हो जाता है, जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़-भूचाल, प्रचण्ड गर्मी आदि के रुप में भयानक हानि लेकर आता है। सभी वस्तुएँ अपने-अपने स्वभाव में रहकर सक्रिय रहे तथा उनमें सामंजस्य और संतुलन बना रहे तो हमारा पर्यावरण दूषित नहीं होगा। अध्यात्म का मूल संदेश यही है कि व्यक्ति अपने निज स्वभाव में जीना सीखें, विभाव या विकृति से दूर रहे। पर्यावरण का अर्थ है यह अस्तित्त्व। सभी वस्तुएँ एक दूसरे की सहयोगी बनी रहे, सभी एक दूसरे परिपूरक बनी रहे। आ. उमास्वाति ने तत्त्वार्थसत्र में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् जीव का गुण परस्पर एक दूसरे का उपकार ७८६. तत्त्वार्थसूत्र ५/२१, आचार्य उमास्वाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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