Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 413
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४०७ (५) अधिकतम संपदा के अर्जन में दत्तचित्त रहना।७६५ ये स्पर्धा के लक्षण है। मानसिक तनाव के हेतु है। जैसे -जैसे संपदा बढ़ती है वैसे-वैसे शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है। एक ओर संपदा की वृद्धि दूसरी ओर मानसिक तनावों में वृद्धि। आकाश में पतंग कितनी ऊपर उठती है फिर भी वह डोरे से मुक्त नहीं बन सकती है। इसी तरह मनुष्य चाहे करोड़पति-अरबपति क्यों न बन जाए किंतु इच्छाओं का गुलाम होने से वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता है। धन-सम्पत्ति वैभव और सत्ता में शांति की खोज करने वाले बड़ी भूल कर रहे है। धन में सुख की मिथ्याअवधारणा ने तनाव को जन्म दिया है। स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थानक ६६ में बताया गया है कि चार स्थान सदैव अपूर्ण रहते है (१) सागर (२) श्मसान (३) पेट और (४) तृष्णा। तृष्णा का खड्डा सबसे बड़ा खड्डा है जिसे कभी भरा नहीं जा सकता है। इसी बात को उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है कि “सरित्सहस्त्रदुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः तृप्तिमानेन्द्रिग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना"७६७ हजारों नदियां सागर के उदर में नियमित रूप से गिरती है फिर भी क्या सागर को तृप्ति हुई? सागर की तरह पाँच इन्द्रियों का स्वभाव है अतृप्त रहना। इसलिए शारीरिक सुख और इन्द्रिय सुख के प्राप्त होने पर मानसिक सुख भी स्वतः प्राप्त हो जाएगा। तनाव दूर हो जाएगा यह मान्यता ही मिथ्या है। उसे उ. यशोविजयजी ने बहिरात्मा ०६८ कहा है। आज दुनिया के सभी लोग बहिरात्मभाव में ही जीवन व्यापन कर रहे हैं। विषय और कषायों के आवेग से युक्त व्यक्ति को कभी शान्ति नहीं मिलती है और शान्ति के अभाव में सुख की प्राप्ति भी नहीं होती है। उ. यशोविजयजी ने तनाव से ग्रसित मानव को दुःख से मुक्ति दिलाने के लिए तथा वास्तविक सुख और दुःख का लक्षण बताते हुए कहा ७६५. अहिंसा और शांति पृष्ठ ४७ -आचार्य महाप्रज्ञ ७६६. स्थानांगसूत्र ७६७. इन्द्रियजयाष्टक ७/३, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी ७६८. विषयकषायावेशः तत्त्वाश्रद्धा गुणेषु च द्वेषः आत्माऽज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः।।२२।। -अनुभवाधिकार २०/२२, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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