Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 417
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४११ मानसिक और दैहिक विकृतियाँ तनाव के कारण साहस, शौर्य, धैर्य, उत्साह, पुरुषार्थ, उदारता, आशावादिता, क्षमा, संतोष, सद्भाव, दया, करुणा, सेवा, आस्तिकता, आत्मविश्वास आदि अनेक सत्प्रवृत्तियाँ सूखने लगती है। मानसिक अशान्ति से जीवन रस सूखता है और अनेक दैहिक एवं मानसिक बीमारियाँ भी उत्पन्न होती है। अतः बीमारियों ने भी एक समस्या का रूप धारण कर लिया है । अन्तर्द्वन्द के उद्वेगों का स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता हैं। दिन-दिन तन्दुरुस्ती गिरने और बीमारियाँ बढ़ने का प्रश्न सामने खड़ा है। हृदय रोग उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, ब्रेनऐमरेज, केन्सर आदि अनेक प्रकार की बीमारियाँ है जिनका उन्मूलन करने के लिए चिकित्सक चिकित्सालय और औषधि निर्माण बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है परंतु मूलकारण असंयम पर ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं। चिकित्सा पद्धतियों में बाह्य कारणों पर ध्यान दिया जाता है परंतु आंतरिक कारणों को गौण कर दिया जाता है। आयुर्वेद का सूत्र हैं- “ दोष-वैषम्यं रोगः दोषसाम्यं आरोग्यम्।” दोषों की विषमता रोग है और दोषों का साम्य आरोग्य है। जब वात, पित्त और कफ विषम हो जाते हैं तब रोग उत्पन्न होता है और जब ये तीनों दोष सम अवस्थाओं में रहते हैं तब निरोगी अवस्था होती है । मानसिक समता आरोग्य है। भगवान महावीर ने रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बताए हैं - ( १ ) अत्यधिक भोजन ( २ ) अहित कर भोजन (३) अति निद्रा (४) अतिजागरण (५) मल बाधा को रोकना (६) मूत्र बाधा को रोकना ( ७ ) पंथगमन (८) प्रतिकूल भोजन ( ६ ) इन्द्रियार्थ विलोपन अर्थात् इन्द्रियों का असंयम स्वस्थ्य जीवन के लिए तीन बातें आवश्यक है (१) आहार, (२) उत्सर्जन और (३) अनशन | संतुलित भोजन मात्र से स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता। इसके साथ अनशन की प्रक्रिया को अपनाकर ही हम स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते है। जैन आगमों में बारह प्रकार के तपों की चर्चा हैं। उ. यशोविजयजी ने भी ज्ञानसार में छः बाह्य और छः आभ्यंतर तपों की चर्चा की हैं। बाह्य तप में ७७६ ७७५. १. अच्चासणयाए २. अहितासणयाए ३. अतिणिद्दाए ४. अतिजागरितेणं ५. उच्चारणिरोहेणं ६. पासवणणिरोहेणं ७. अद्धाणगमणेणं ८. भोयणपडिकूलताए ६. इंदियत्यविकोवणयाए - उद्धृत - महावीर का स्वास्थ्य शास्त्र - आचार्य महाप्रज्ञ ७७६. ज्ञानमेव बुधः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः। तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम् 1 19 । । - तपाष्टक् - ३१ / १, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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