Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 401
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३६५ लेती है, लेकिन आत्मा कभी निद्रा तो कभी जागृति की अवस्था में क्रमशः छठे - सातवें गुणस्थान में झूलता रहता है। प्रमाद के साथ होने वाले इस शुद्ध में जब वह विजय प्राप्त कर लेता है तो अब उसके होंसले बुलन्द हो जाते हैं। अब वह अपना आन्तरिक बल बढ़ाता है ताकि शेष रही मोह राजा की सेना को नष्ट किया जा सके। मोह के साथ होने वाले भावी युद्ध के लिए की जाने वाली तैयारी की इस भूमिका का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। आध्यात्मिक विकास की ओर क्रमशः बढ़ती हुई आत्माएँ आठवें गुणस्थान से दो श्रेणी में विभक्त हो जाती हैं। कोई विकासगामिनी आत्मा मोह को उपशमित करती हुई आगे बढ़ती है, किन्तु उसे निर्मूल नहीं कर पाती है तथा ग्यारहवें गुणस्थानक में मोह से पराजित होकर पतित हो जाती है। विशिष्ट आत्मशुद्धि वाली कुछ आत्माएँ मोह के संस्कारों को जड़मूल से उखाड़ते हुए आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ती हैं तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्तकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करती हैं कि ग्यारहवें गुणस्थान को स्पर्श किए बिना ही मोह को सर्वथा क्षीण करके सीधे बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर पहुँच जाती हैं। जो आत्माएँ मोह को नष्ट कर आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ती हैं, वे अपनी पूर्णता को प्राप्त करके ही विश्राम लेती हैं। उनका विकास बीच में अवरुद्ध नहीं होता है। “परमात्मस्वरूप को प्रकट करने में मुख्य बाधक मोह ही है। मोह के पराजित होते ही अन्य घातिकर्म भी नष्ट हो जाते हैं, इस कारण विकासगामिनी आत्मा तुरन्त ही सच्चिदानन्दस्वरूप को पूर्णतया प्रकट करके अनंतचतुष्टय से शोभित होती है। इस भूमिका को तेरहवाँ सयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं, जिसमें आत्मा की सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस गुणस्थान में भी जब आत्मा अघातीकर्मों को नष्ट करने के लिए सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यानरूप पवन का आश्रय लेकर, मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देती है, तब चौदहवाँ अयोगीकेवली गुणस्थान प्रकट होता है। यह आध्यात्मिक - विकास की पराकाष्ठा है। इसके अन्त में आत्मा शरीर त्याग कर मोक्ष प्राप्त करती है। यही सर्वांगीण पूर्णता है, परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है । ' ,,७५४ ७५४ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता / २० आचार्य जयन्तसेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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