Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 373
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६७ घाति कर्मों के क्षय के बाद अनंतचतुष्टय, अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुख का प्रकटन हो गया है, वह अरिहन्त परमात्मा कहलाते हैं। जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं हुआ हो और चार अघाति कर्मों का क्षय नहीं हुआ हो, तब तक सदेह विचरते हुए परमात्मा हैं। अरिहन्तपरमात्मा सर्वज्ञ, वीतराग और निर्विकल्प होते हैं। अन्य परम्परा की शब्दावली में हम इन्हें जीवनमुक्त भी कह सकते हैं, क्योंकि अरिहन्त परमात्मा चरम शरीरी होते हैं, अर्थात् वे इस शरीर के पश्चात् अन्य शरीर को धारण नहीं करते है और चारों अघाती कर्मों के क्षय के पश्चात् सिद्धावस्था प्राप्त कर लेते हैं। अरिहन्त परमात्मा दो प्रकार के होते हैं१. सामान्यकेवली २. तीर्थंकर सामान्यकेवली और तीर्थकर- दोनों में अनंतचतुष्टय की अपेक्षा से कोई भिन्नता नहीं है। दोनों ही अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य के स्वामी होते हैं, किन्तु तीर्थंकर में इतना विशेष होता है कि वे केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध तीर्थ (संघ) की स्थापना करते हैं और धर्ममार्ग का पुनः प्रवर्तन करते हैं। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना करने के कारण वे तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकर शब्द का उल्लेख स्थानांगसूत्र, समवायांग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र में उपलब्ध होता है, किन्तु कालक्रम की दृष्टि से ये सभी आगम परवर्ती माने गए हैं। प्राचीन स्तर के आगमों में आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र और ऋषिभाषित आते हैं, किंतु इन आगमग्रन्थों में केवल उत्तराध्ययन में ही तीर्थंकर शब्द प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र आदि ग्रन्थों में अर्हन्त शब्द का प्रयोग ही अधिक प्राप्त होता है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भूतकाल और भविष्यकाल के अर्हन्तों की अवधारणा मिलती है।६६७ आत्म उपलब्धि की दृष्टि से तो सामान्य केवली (सर्वज्ञ) और तीर्थकर में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु जैन-परम्परा में सामान्य केवली की अपेक्षा तीर्थकर की कुछ विशेषताएँ मानी गई हैं। हम यहाँ तीर्थंकर की विशेषताएँ बताते हुए सामान्य केवली से अंतर स्पष्ट करेंगे। ६६७. आचारांगसूत्र १/४/१/१ उद्धृतः जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा, पृ. ३०१-साध्वी प्रियलताश्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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