Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 388
________________ ३८२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री तृतीय खट्टामिठा स्वाद होता है।"७३४ दोलायमान स्थिति रहने से मिश्रगुणस्थान में जीव को न पर भव की आयुकाबंध होता है न उसका मरण होता है। वह सम्यक्त्व या मिथ्यात्व दोनों में से किसी एक के अनुरूप परिणामों को प्राप्त करके ही मरता है। यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहती है, क्योंकि मिश्रपुंज का उदय सिर्फ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। इसके बाद शुद्ध या अशुद्ध किसी एक पुंज का उदय हो जाता है। इसलिए तृतीय गुणस्थान की कालस्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होती है। ४. अविरतसम्यक्दृष्टि गुणस्थान - “जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि है और उसका स्वरूप विशेष अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है।"७३४ इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरत न होने पर भी जिनाज्ञा पर श्रद्धा होने से उसका दृष्टिकोण सम्यक होता है। सम्यकूमार्ग की समझ होने पर भी उस मार्ग पर गति नहीं होने का कारण संयम का घातक अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय रहता है। इस कारण वह सम्यक् आचरण नही कर पाता है। डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि वह एक अपंग व्यक्ति की भाँति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पता है। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अनैतिक मानते हुए भी उनका त्याग नहीं कर पाता है किनतु यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि वह बिना प्रयोजन हिंसादि कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करता है अविरतसम्यग्दृष्टि में क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है, क्योंकि जब तक अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता, तब तक उसे सम्यग्दर्शन भी प्राप्त नहीं होता है। उ. यशोविजयजी ने अविरतसम्यग्दृष्टि का चित्रण करते हुए कहा है "मन महिला नुरे व्हाला उपरे बीजा काम करत तिमश्रुतधर्मे रे एहमां मन धरे ज्ञानाक्षेपकवंत एहवे ज्ञाने रे विघन निवारणे भोग नहि भव हेत् नवि गुण दोष न विषय स्वरूप थी, मन गुण अवगुण खेत" ,७३६ जात्यन्तर समुद्भतिर्बडवारवयोर्यथा गुडदध्नोः समायोगे रसभेदान्तरं यथा ।। । गुणस्थान क्रमारोह-१४ सं. पंचसंग्रह १/२३ आठदृष्टि की सज्झाय-६, उ. यशोविजयजी ७३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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