Book Title: Yashovijayji ka Adhyatmavada
Author(s): Preetidarshanashreeji
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 386
________________ ३८०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ३. सांशयिक - जिनवाणी पर शंका करना।। ४. आभिनिवेशिक - स्वयं का मत असत्य है यह जानकर भी हठाग्रह से उसे पकड़ रखना। ५. अनाभोगिक वस्तुतत्त्व को जानना ही नहीं, अर्थात् विशेष ज्ञान का अभाव । २. सास्वादन गुणस्थान - द्वितीय गुणस्थान सास्वादन सम्यग्दृष्टि है। जिसे प्राकृत भाषा में 'सासायण' कहा गया है। संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं'सास्वादन' और 'सासादन'। जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से गिरता है, किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् मिथ्यात्वाभिमुख जीव को सम्यक्त्व का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है, उसी अवस्था को सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।७२७ अभिधानराजेन्द्रकोष७२८ में तथा समवायांगवृत्ति७२६ में इस गुणस्थान का काल जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्टतः ६ आवलिका बताया गया है। साथ ही अभिधानराजेन्द्रकोष में उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि "जैसे कोई व्यक्ति ऊपर की मंजिल पर चढ़ रहा हो और अकस्मात् फिसल जाने पर जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, इसी प्रकार उपशम सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व के पाने के बीच आत्मा एक विलक्षण आध्यात्मिक-अवस्था का अनुभव करती है।"७२" जैसे खाई हुई खीर वमन के समय निकल गई, किन्तु खीर का आस्वादन कुछ समय के लिए अवश्य रहता है, ठीक उसी प्रकार सम्यक्त्व की खीर का वमन करने के बाद कुछ समय उसका आस्वादन बना रहता है। अतः इसे सास्वादन कहते हैं।" ७२७ आसादनं सम्यक्त्व विराधनम् सह आसादनेन वर्तत इति सासादनां विनाशित सम्यग्दर्शनोऽप्राप्तमिथ्यात्व कर्मोदयजनित परिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः सासादन इति भण्यते। - षट्खण्डागम, धवलावृत्ति, प्रथमखण्ड, पृ. १६३ अभिधानराजेन्द्रकोष-७, पृ. ७६४ समवायांगवृत्ति पत्र २६ उवसमसम्मा पढमा-णाओ मिच्छत्तसंकमणकालो। सासायणछावलितो, भूमिगपत्तो व पवडतो।।१२५।। अभिधानराजेन्द्रकोष -भाग ७, पृ. १६४ भुवताक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्न रसमास्वादयति तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीक चित्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतर तद्रसास्वादो ७३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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