Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की दृष्टि से इस ग्रन्थ की उपादेयता असन्दिग्ध है। वैयाकरण सिद्धान्तों के विवेचन के प्रसंग में, पूर्वपक्ष के रूप में, न्याय मीमांसा आदि अन्य दर्शनों के उन-उन सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख कर के यहां उनका सयुक्तिक खण्डन किया गया है। कहीं कहीं तो इन दर्शनों की पूर्वपक्षीय स्थापना का यह रूप इतना विस्तृत हो गया है कि इनमें पूर्वपक्ष की प्रतीति ही नहीं होती। 'धात्वर्थनिरूपण,' निपातार्थनिरूपण,' 'लकारार्थनिरूपण' तथा 'समासादिवृत्त्यर्थ' प्रकरणों में ऐसे अनेक स्थल मिलते हैं। वैयाकरणों की दृष्टि से 'लकारादेशार्थनिरूपण' के पश्चात् नैयायिकों के नाम से 'लकारार्थनिरूपण' नामक एक अलग प्रकरण भी यहां उपलब्ध है, जिसमें ग्रन्थकार ने पूरे विस्तार के साथ जमकर नैयायिकों तथा मीमांसकों के लकारार्थ-विवेचन को परखा है। इस रूप में यह ग्रन्थ, देखने में भले ही छोटा है पर, व्याख्या एवं विश्लेषण की दृष्टि से पर्याप्त कठिन और दुरूह है। फिर भी व्याकरण दर्शन के अध्ययन के लिये इस ग्रन्थ की उपयोगिता बहुत अधिक है। इसी कारण वैयाकरणभूषणसार की अपेक्षा कहीं अधिक आदर, प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता इस ग्रन्थ को प्राप्त है। दुर्भाग्यवश इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में अब तक कोई विशेष कार्य नहीं हुया था। यहां तक कि इसका कोई अच्छा संस्करण भी उपलब्ध नहीं था। केवल कुछ संस्कृत टिप्पणियों के साथ इस ग्रन्थ के एक दो संस्करण मिल रहे थे। हस्तलेखों तथा प्रकाशित संस्करणों के आधार पर मूल ग्रन्थ के विशुद्ध सम्पादन, सम्पूर्ण ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में सरल एवं स्पष्ट अनुवाद तथा विस्तृत समीक्षात्मक व्याख्या-इन विशेषताओं के साथ यह संस्करण इस दिशा में एक नया प्रयास है। हिन्दी अनुवाद को, सरल बनाने की दृष्टि से, कहीं कहीं अधिक विस्तृत करना पड़ा। व्याख्या के प्रसंग में व्याख्येय अंश से सम्बद्ध पृष्ठभूमि तथा पूर्वपक्ष सम्बन्धी मूल स्रोतों और आधारों को भी देना अनिवार्य था । इन कारणों से इस संस्करण का कलेवर कुछ अधिक विस्तृत हो गया। आशा है यह संस्करण, इस दिशा में रुचि रखने वाले अथवा शोधार्थी छात्रों तथा विद्वानों के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। आज से लगभग १२ वर्ष पूर्व यह संस्करण तैयार हो चुका था, तथापि विश्वविद्यालय के प्रकाशन-क्रम में आकर अब यह प्रकाशित हो रहा है । यह भी विधाता की परम अनुकम्पा है तथा प्रसन्नता की बात है--- "यस्माद् ऋते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन" । परमलघुमंजूषा के इस प्रकाशन के प्रसंग में इस विश्वविद्यालय के परम सम्माननीय एवं प्रतिष्ठित उपकुलपति श्री शरत् कुमार दत्त, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष स्व० प्रोफेसर डॉ० बुद्ध प्रकाश तथा संस्कृत विभाग के सम्माननीय अध्यक्ष प्रोफेसर डॉ० गोपिका मोहन भट्टाचार्य के प्रति मैं विशेष आभारी एवं श्रद्धावनत हूँ, जिनकी परोक्ष एवं अपरोक्ष प्रेरणाओं तथा सहायताओं से मुझे समय समय पर अनुगृहीत होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अधिकारियों का में विशेष कृतज्ञ हूं जिनकी आर्थिक सहायता से यह ग्रन्थ प्रकाशित हो सका। For Private and Personal Use Only

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