Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो शब्द संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक अध्ययन एवं विवेचन के इतिहास में, भर्तृहरि के अद्भुत ग्रन्थ वाक्यपदीय के पश्चात्, नागेश भटट की वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा के गुरु तथा लघु संस्करणों का अद्धितीय स्थान है। इन दोनों ग्रन्थों में विस्तृत रूप से चचित सिद्धान्तों को ही, यथाकथंचित् संक्षिप्त रूप में, वैयाकरणसिद्धान्तपरमलघुमंजूषा में संकलित किया गया है। परन्तु इस परमलघुमंजूषा को गुरु तथा लघुमंजूषाओं का एकमात्र संक्षिप्त रूप ही नहीं माना जा सकता। कहीं कहीं परलघुमंजूषा में उन दोनों ग्रन्थों से स्वतंत्र चिन्तन एवं प्रतिपादन की प्रणाली भी देखी जाती है तथा कुछ ऐसे विषयों का भी समावेश है जो लघुमंजूषा तथा बृहन्मंजूषा में नहीं पाये जाते । कुछ स्थानों पर लघुमंजूषा तथा परमलघुमंजूषा के वक्तव्यों तथा प्रतिपादनों में परस्पर विरोधी स्थिति भी पायी जाती है । इसके अतिरिक्त परमलघुमंजूषा के अन्तिम दो अध्यायों में कौण्डभट के वैयाकरणभूषणसार की बहुत कुछ सामग्री अविकल रूप में संगृहीत है, यद्यपि कुछ अन्य स्थलों में वैयाकरणभूषणसार के एक दो वक्तव्यों का खण्डन अथवा उनके विरुद्ध कथन भी मिलता है। इन सब का सप्रमाण निरूपण भूमिका में किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों (गुरु तथा लघु) मंजूषानों और कौण्डभट्ट के वैयाकरणभूषणसार की विषय वस्तु को इस परमल घुमंजूषा में ग्रन्थकार ने नवीन दृष्टि से परिष्कृत रूप में और कहीं कहीं स्वतंत्र रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ ग्रन्थकार स्वयं नागेश हैं, अथवा उनका कोई शिष्य है, या अन्य कोई है यह निर्णय करना कठिन है, विशेषतः ऐसी स्थिति में जब कि परमलघुमंजूषा के विभिन्न हस्तलेखों के प्रारम्भिक अंश 'मंगलाचरण' में शिवं नत्वा हि नागेशेनानिन्द्या परमा लघुः । वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषषा विरच्यते ॥ यह श्लोक तथा अन्त में-"इति शिवभट्ट-सुत-सतीदेवी-गर्भज-नागेशभट्ट-कृता परमलघुमंजूषा समाप्ता" यह वाक्य लिखा मिलता है। यह भी सम्भव है कि नागेश के ग्रन्थ में किसी पण्डित ने यत्र तत्र कुछ अंश प्रक्षिप्त कर दिये हों। परमलघुमंजूषा के ग्रन्थकार के विषय में अब तक किसी ने सन्देह नहीं किया था। हम अपना यह सन्देह व्यक्त करते हुए यह आशा करते हैं कि विद्वन्महानुभाव इस विषय में किसी सुपुष्ट आधार पर कुछ निर्णय शीघ्र देंगे। ग्रन्थकार के सन्दिग्ध होने पर भी परमलघुमंजूषा का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं होता । व्याकरण दर्शन की रूपरेखा तथा उसके विविध सिद्धान्तों के संक्षिप्त परिचय For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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