Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन यह विशेष सौभाग्य की बात है कि नागेश भट्ट कृत परमलघुमंजूषा का सर्वोत्तम संस्करण (आलोचनात्मक सम्पादन, अनुवाद तथा विस्तृत समीक्षात्मक व्याख्या के साथ ) संस्कृत व्याकरण दर्शन के निष्णात गवेषक डॉ० कपिल देव शास्त्री ( रीडर संस्कृत विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय) के द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इससे पूर्व डॉ० शास्त्री का शोध प्रबन्ध The Ganapatha Ascribed to Panini, पाणिनीय गणपाठ के सटिप्परण आलोचनात्मक सम्पादन के रूप में, इसी विश्वविद्यालय से १९६७ में प्रकाशित हो चुका है, जिसे पौरस्त्य तथा पाश्चात्त्य सभी विद्वानों का विशेष प्रदर एवं मान प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त डॉ० शास्त्री ने संस्कृत व्याकरण दर्शन की अनेक समस्यात्रों तथा विषयों पर मौलिक शोध पूर्ण निबन्ध लिखे हैं जो समय समय पर शोधपत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं । भारत में व्याकरण दर्शन की परम्परा अति प्राचीन है । परन्तु सर्वप्रथम भर्तृहरि ने अपने अप्रतिम ग्रन्थ वाक्यपदीय में इस दर्शन को सुव्यवस्थित, परिनिष्ठित एवं परिमार्जित रूप दिया, जिसे शब्दाद्वत दर्शन कहा जाता है। परवर्ती सभी वैयाकरण तथा अन्य दार्शनिक भर्तृहरि से पर्याप्त प्रभावित हुए । एक ओर प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्ट तथा बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने शब्दाद्वैतवाद के खण्डन में अपनी पूरी शक्ति लगा दी तो दूसरी ओर उतने ही प्रतिष्ठित दार्शनिक मण्डन मिश्र तथा वाचस्पति मिश्र ने विविध युक्तियों तथा प्रमारणों के द्वारा भर्तृहरि के शब्द सिद्धान्त का जोरदार समर्थन किया । वाक्यपदीय एक अत्यन्त दुरूह ग्रन्थ है । इसके व्याख्या के रूप में वृषभदेव, पुण्यराज तथा हेलाराज की टीकाओं से, जो आज कथंचित् उपलब्ध हैं, वाक्यपदीय को हृदयंगम करने में पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाती। साथ ही इन टीकाकारों तथा भर्तृहरि के समय में भी बहुत अन्तर है । भर्तृहरि की परम्परा इन टीकाओं में कहाँ तक सुरक्षित है यह विचारणीय प्रश्न है । वाक्यपदीय की तथाकथित 'स्वोपज्ञ' टीका के भर्तृहरिरचित होने में अनेक सन्देह व्यक्त किये गये हैं । वस्तुतः ग्यारहवीं शताब्दी के बाद भर्तृहरि की परम्परा बहुत कुछ लुप्त अथवा विकृत हो गई। भट्टोजि दीक्षित के ग्रन्थों में भी व्याकरण दर्शन का सुष्ठु निरूपण नहीं मिलता । ग्रतः यह मानना होगा कि सर्वप्रथम नागेश भट्ट ने ही भर्तृहरि प्रचारित व्याकरण दर्शन को पुनरुज्जीवित किया । जिस काल में नागेश भट्ट का प्रादुर्भाव हुआ उस समय दार्शनिक विवेचन के क्षेत्र में एक नयी पद्धति जन्म ले चुकी थी, जिसका बहुत कुछ श्रेय १३वीं शताब्दी के गंगेश उपाध्याय को है । इस पद्धति को नव्यन्याय का नाम दिया गया। इस काल के प्राय: सभी दार्शनिक नव्यन्याय की परिभाषा तथा शैली से पूर्णतः प्रभावित दिखाई देते हैं । नागेश भट्ट भी इस शैली से मुक्त नहीं हैं । इस कारण नागेश के ग्रन्थों में भी वही For Private and Personal Use Only

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