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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः गच्छ में एक ही होता था। इन्हीं गुणों से परिपूर्ण होने के कारण जयसागरजी भी महोपाध्याय कहलाये। खरतरवसही के लेख से ४४९, ४५६ आदि में इनको श्रीजयसागरमहोपाध्यायबान्धवेन' महोपाध्याय पद का उल्लेख मिलता है अतः सं० १५१० के लगभग ही इन्हें इस विरुद के साथ स्मरण करना प्रारम्भ हुआ होगा।
श्री जयसागर जी असाधारण प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् और उच्चकोटि के मर्मज्ञ थे। इन्होंने कई मौलिक ग्रन्थों, टीकाओं एवं स्तोत्रों की रचनायें की थीं। स्तोत्र एवं स्तुति साहित्य के प्रसंग में जयसागरोपाध्याय रचित साधारण जिनस्तुति की व्याख्या करते हुए श्री वल्लभोपाध्याय ने लिखा है:
"कवीश्वरशिरोवतंसैः श्रीजयसागरमहोपाध्यायहं सैस्तीर्थकृतां लघुवृद्धसंस्कृतप्राकृतयमकाऽयमकमयस्तोत्राणां पञ्चशती विहिता। स्तुतयोऽप्यस्तोकास्तथैव विहिताः।"
सं० १५११ में लिखित श्रीजयसागरोपाध्यायप्रशस्ति में भी लिखा है:
"विरचित xxxxxxx संस्कृत-प्राकृतबन्धस्तवनसहस्राणाम्।"
इससे स्पष्ट है कि इन्होंने स्तोत्र-स्तुति-स्तवन साहित्य का विपुल परिमाण में सर्जन किया था। किन्तु खेद है कि वर्तमान समय में इनके स्तोत्रसंग्रहों की ३ प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, वे सभी अपूर्ण हैं और इनके आधार से ५८ रास, स्तवन, स्तोत्रादि प्राप्त होते हैं । अस्तु । अधुना इनके द्वारा निर्मित जो कुछ साहित्य प्राप्त होता है, सूची देखने के लिये देखें शब्दप्रभेद कोश की ज्ञानविमलीय टीका में मेरी भूमिका।
श्री जयसागरोपाध्याय का अन्तिम समय अनुमानतः १५१५ के आसपास माना जा सकता है।
श्री जयसागरोपाध्याय के प्रमुख शिष्य रत्नचन्द्र उपाध्याय थे। जिनके लिए जयसागरोपाध्याय ने विज्ञप्ति त्रिवेणी (१४८४) में रत्नचन्द्र के लिए लिखा है 'रत्नचन्द्र क्षुल्लकं चाधीयमानस्वाध्यायं शब्दब्रह्मव्याकरणमधिजिगापियिषन्तः'। सम्भवतः संवत् १४८४ के लगभग ही इनकी दीक्षा हुई होगी। स्वरचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र (१५०३) की प्रशस्ति के आठवें पद्य में
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