Book Title: Vallabhiya Laghukruti Samucchaya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 39
________________ 36 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः ३. वाचक रत्ननिधानकृत चैत्यपरिपाटी स्तवन के अनुसार सं० सोमजी का संघ सं० १६४४ चैत्र कृष्णा ४ को शत्रुञ्जय पर पहुँचा था: संवत सोलह सइ चिम्मालइ, बरसि सवि सुखकार। चैत वदी चउथी दिनइ, बुधवल्लभ बुधवार॥१०॥ संघपति योगी सोमजी, मन धरि हरख तुरंग। गच्छपति श्रीजिनचन्द्रनइं, यात्रा करावी रंग॥११॥ सुविहित खरतर संघनइ, श्री आदिदेव प्रसन्न। . वाचनाचारिज इम भणइ, रत्ननिधान वचन्न ॥१२॥ ४. महोपाध्याय समयसुन्दरकृत कल्पसूत्रटीका कल्पलता (र० सं० १६८५) की प्रशस्ति में लिखा है कि जगद्विश्रुत सोमजी और शिवा ने राणकपुर, गिरिनार, आबू, गौडी पार्श्वनाथ और शत्रुञ्जय के बड़े-बड़े विशाल संघ निकालकर तीर्थयात्रायें की और प्रतिनगर में स्वगच्छानुयायियों को २ रुक्म (सिक्का) की प्रभावना की: यद्वारे पुनरत्र सोमजि - शिवा श्राद्धौ जगद्विश्रुतौ, याभ्यां राणपुरश्च रैवतगिरिः श्रीअर्बुदस्य स्फुटम्। गौडी श्रीविमलाचलस्य च महान् संघो नयः कारितो, गच्छे लम्भनिका कृता प्रतिपुरः रुक्मा द्विमेकं पुनः॥ ५. गुणविनयोपाध्याय ने ऋषिदत्ता चौपाई (र० सं० १६६३) में लिखा है कि सं० शिवा सोमजी ने खंभात में भी बहुत द्रव्य खर्च करके अनेकों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई:श्रीखंभायत थंभण पास, धरण पउम परतिख जसु पास॥६३॥ श्री खरतरगच्छ गगननभोमणि, अभयदेवसूरि प्रगटित सुरमणि। धन खरची बहु बिंब भराविय, साह शिवा सोमजी कराविय॥६४॥ अचरजकारी पूतली जसु ऊपरि, शरणाइ वर भेरि विहि परि। पास भगति वस जिहा बजावइ, गुरु परसाद रह्या शुभ भावइ॥६५॥ ६.श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा - लिखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ० २४२-२४३ में लिखा है कि: (क) अहमदाबाद की दस्सा पोरवाड़-जाति में आपने कई गच्छे रीतिरिवाज प्रचलित किये थे। अब भी विवाह-पत्र के लेख में शिवा सोमजी की रीति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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