Book Title: Vallabhiya Laghukruti Samucchaya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
View full book text
________________
१२१
चतुर्दशगुणस्थानस्वाध्याय छठि थांनकि घणुं प्रमाद, निद्रा विकथा करि विवाद। जांणि जिनमत नवतत्व मर्म, तु नर तिन करि जिनधर्म।।१३।। सातमि थांनकि सुणि अप्रमत, खम दम संयम निश्चल चित। पोसह पडिमा परिबि सहइ, केता चारित्र भइ निरवहइ ।। १४ ।। आठमि थांनकि नर जे होइ, च्यार कषाय मनि मुंकि सोइ। परद्रोह परनिंदा नवि करइ, कूड कपट मुंकी विवहरइ ।। १५ ।। नवमि मुंकि सुषिम लोभ, क्रोध मांन मायानु ख्योभ। नवमा रस, संचय करइ, मणि त्रण सोवन समता धरि ।। १६ ।। दसमि गुणथांनक जे होइ, अष्ट कर्म चूरण करइ सोइ। पंच सुमति त्रण गुपति निरूव, इम सूषिम संपराय पवीत ।। १७ ।। उपसांत मोह गुण ठाणा एह, कर्म तणउ जिणि कीधउ छेह। रख्या मांहि जलणि जिम रहइ, श्रुतधर इग्यारमुं इम कहइ।।१८।। तिहां थउ जीव प्रमाद जउ करि, निगोदमांहि जई वली अवतरि। कोडा कोडि भव जीव इम भमइ, पुद्गल पराव्रत इम इति क्रमि।। १९ ।। बारमि गुणथांनकि हेव, क्षिपक श्रेणिक चडीओ जीव। शुक्ल ध्यान मांडि अस्युं, दहि कर्म ज्वाल्युं त्रण जिस्युं।। २० ।। तेरमि गुणथांनिकि संचरी, घनघातीया कर्म खयकरी। पामि जगमग केवलन्यांन, ओछव करि सुरासुर भांणि।। २१ ।। चउदमउं गुणथानिक एह, अजरामर पद लहीइ जेह। सिद्धि तणि थांनिकि अवतरी, सासि सुख लहि जिधर्मकरी।। २२ ।।
[कलस] एय कुसलकारक दुखनिवारक चउद थांनिकि जाणीइ, जिन तणी वांणी हीइ आंणि सुमति मांन वखांणीइ । जे सुणिअ निव्रत करि एक चिति सुषिर समकित तेह तणओ। श्रीवल्लभमुनिवर भणि जिनवर तिहां घरि हुइ सुख घणो।। २३ ।।
इति चउदगुणठाणसज्झायसम्पूर्णम्
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188