Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 127
________________ बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, ज्येष्ठ, इतर के देह भेद, तथा पांचों ही निगोद, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय देह की अवगाहना तथा इनका क्रमशः अल्प-बहुत्व का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन । गणिजी ने इस सैद्धान्तिक, एवं मार्मिक विषय को भी सरलता से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की है। ५. श्रावक व्रत कुलक प्राकृत भाषा में २८ आर्याओं में रचित इस कुलक को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यगप्रवरागम श्री अभयदेवसरि के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पश्चात किसी भक्त श्रावक ने आपके पास सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किये थे। प्रस्तुत कुलक में यह तो स्पष्ट नहीं है कि किस संवत् में और किस श्रावक ने आपके पास व्रत ग्रहण किये थे ? किन्तु यह तो स्पष्ट है कि लेने वाला श्रावक बाहड़मेरु' (मारवाड़) के आस-पास का निवासी था। इसका नाम अन्य प्रति में 'परिग्रहपरिमाण कुलक' भी लिखा मिलता है, किन्तु इसमें केवल एक परिग्रह का ही परिमाण नहीं है अपितु समग्रव्रतों का है । अतः उपर्युक्त नाम उपयुक्त ही प्रतीत होता है । इसमें 'कुलक' के स्थान पर लेखक 'टिप्पनिका' नाम रखता तो अधिक उपयुक्त होता। क्योंकि इसमें त्याज्य और मयोदित वस्तुओ का ही टिप्पन के रूप में लेखन किया है न कि वर्णन के रूप में। __ प्रारम्भ में श्री महावीर को नमस्कार कर देव गुरु धर्म मूलक सम्यक्त्व सह गृहीधर्म स्वीकार करता हूँ। तृतीय पद्य में १२ व्रतों का नाम निर्दश इस प्रकार किया है : पांच अणुव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। तीन गुणवत-दिक्परिमाण, भोगोपभोग, अनर्थदण्ड । चार शिक्षाव्रत - सामायिक, देशाप्रकासिक, पौषध. अतिथिसंविभाग । पद्य ३, ४ में स्थूल प्राणातिपात, असत्य, स्तेय तथा स्वपत्नी अतिरिक्त मैथुन का त्याग करता है। पद्य ५ों में बाह्य नवबिध परिग्रह-धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तू. चांदी, सूवर्ण, चतुष्पद (पशु, पक्षी), द्विपद (दास, दासी), कुप्य नाम निर्देश कर गाथा ६-८ तक इसकी मर्यादापरिमाण का उल्लेख किया है। पद्य ६-२० में दिशा का परिमाण एवं भोग्य वस्तुओं को सीमित करता हुआ १४ नियमों को धारण कर अनर्थदण्ड का परिमाण करता है । गा० २० से २६ में, प्रति वर्ष ६० सामायिक करने की प्रतिज्ञा करता हुआ देशावगासिक, पौषध, अतिथि संविभाग, जिनमूर्ति की द्रव्यपूजा, वह भी जिनेश्वर देव के पांच कल्याणक दिवसों में विशेष रूप से करूंगा ऐसा कथना करता हुआ प्रतिज्ञा करता है तथा कहता है कि प्रमादवश व्रत में अतिचार (दोष) लग जाय तो एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करूगा एवं सम्पूर्ण आस्रव द्वारों का त्रिकरण तथा त्रियोग द्वारा त्याग करता हूँ। ___ अन्त में पद्य २७ में कवि इसकी महत्ता दिखाता हुआ कहता है कि सम्यक्त्व जिसका मूल है, अणुव्रत जिसका स्कन्ध है, गुण व्रत और शिक्षाव्रत जिसकी शाखा और प्रशाखायें हैं ऐसे गृही-धर्मरूपी वृक्ष को श्रद्धारूपी जल से सिंचन करने पर मोक्ष फल प्राप्त होता है। पद्य २८वें में कवि अपना नाम प्रदान करता हुआ उपसंहार करता है। १. बाहड़मेरु माणं पद्य १२ ६२ ] [ वल्लभ-भारती

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