Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ टीका प्राप्त नहीं थी। ऐसी अवस्था में कल्पलतिका नाम की टीका लिख कर पाठकजी ने एक क्षति की पूर्ति की है जो अभिनन्दनीय है। प्रस्तुत काव्य अत्यन्त ही दुर्घट-काव्य है । टीका बिना इसका अर्थ करना एक कठिन कार्य है । किन्तु पाठकजी की प्रतिभा ने अपनी परिमार्जित और प्राञ्जल भाषा में इसको सरल और सरस बनाने में पूर्ण योग दिया है। इससे यह काव्य विषम होता हुआ भी सरलतम हो गया है जिसका श्रेय पाठकजी को ही है। ___इस काव्य की विषमता को पाठकजी स्वयं स्वीकार करते हुए प्रारम्भ के मंगलाचरण में लिखते हैं: स जयताज्जगति जनवल्लमः, परहितकपरो जिनवल्लमः । चतुरचेतसि यस्य चमत्कृति, रचयतीह चिरं रुचिर वचः ॥२॥ तद्विरचितविषमार्थप्रश्नोत्तरषष्टिशतकशास्त्रस्य । वितनोमि विवरणमह सुगमं स्वपरोपकारकृते ॥३॥ प्रस्तुत काव्यमयी टीका प्रकाशन योग्य है। आशा है जैन समाज इस कृति को अवश्य प्रकाशित करेगा। उपाध्याय साधुसोम चरित्र पञ्चक और नन्दीश्वर स्तोत्र के टीकाकार उपाध्याय साधुसोम, जैसलमेर ज्ञान भंडार के संस्थापक श्रीजिनभद्रसूरि के प्रशिष्य और महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के शिष्य थे। महो• सिद्धान्तरुचि १६ वीं शतो के प्रौढ विद्वानों में माने जाते थे। आपने अपने पूज्य-गुरु आचार्य जिनभद्र के अनुरूप ही मांडवगढ (मालवा) में एक भंडार की स्थापना की थी। संभवतः आचार्य जिनभद्रसूरि ने अपने करकमलों से सं० १५०० के पूर्व ही आपको दीक्षा प्रदान की होगी। इस अनुमान का कारण यह है कि आपने सं० १५१० में संग्रहणी पर अवचूरि और पुष्पमाला प्रकरण पर स० १५१२ में वृत्ति की रचना की है। पुष्पमाला प्रकरण टीका की भाषा आलकारिक, प्रवाहपूर्ण तथा परिमाजित होने से १०.१५ वर्ष का व्यवधान होना तो स्वाभाविक ही है। आपको सं० १५१६ के पूर्व ही गणि पद प्राप्त हो चुका था और संभवतः तत्कालीन गच्छनायक श्री जनचन्द्रसूरि ने ही आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। __चरित्न पंचक पर सं० १५१६ में आपने अर्थ-प्रबोधिनी नामक टीका की रचना पूर्ण की: श्रीखरतरगच्छेश श्रीमज्जिनभद्रसूरिशिष्याणाम् । जीरापल्लीपार्श्वप्रभुलब्धवरसावानम् ॥१॥ १. १७ वीं शती की लिखित प्रति मेरे संग्रह में है। [ वल्लभ-भारती

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244