Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 213
________________ ७. सिन्दूर प्रकर वृत्ति सं० १५०५' भीषण अभ्यर्थनया ८. भावारिवारणस्तोत्र वृत्ति २ ६. कल्याणमन्दिर स्तोत्र वृत्ति रघुवंश और नैषधटीका में तो कवि ने अपनी प्रतिभा एवं पाण्डित्य का पूर्ण उपयोग किया है। नैषध की टीका में तो कवि ने अपनी कलम ही तोड़ दी है और उसने उसमें यह प्रयत्न किया है कि अन्य टीकाओं की भी यह 'जननी' पथप्रदर्शिका बन सके। "यद्यपि बह व्यस्टीका: सन्ति मनोज्ञारनथापि कुत्रापि। एषा विशेषजननी भविष्यतीत्यत्र मे यत्नः ।। यही कारण है कि गुजराती मुद्रणालय बम्बई से प्रकाशित कुमारसंभव वृत्ति की प्रस्तावना में सम्पादक आपके पाण्डित्य की प्रशंसा करता हुआ लिखता है: "चारित्रवर्धनकृता शिशूहितैषिणी टीका......, सा च श्लोकाभिप्रायं स्पष्टतया विशदीकरोति पदार्थांश्चाभिर्वक्ति, अतो शिशुहितैषिणी व्युत्पित्सूनामतीवोपकारिणीति सम्प्रधार्य।" सिन्दूरप्रकर जैसे १०० पद्यों के काव्य पर ४८०० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना कर गणिजी ने अपनी असाधारण योग्यता का परिचय दिया है। इस टीका में व्याख्याकार ने सुरुचिपूर्ण एवं मौलिक दृष्टान्तों की शानों माला ही खड़ी कर दी है। ____ आपके टीकाओं की प्रशस्तियों को देखने से यह मालूम होता है कि न केवल आप ही नरवेष सरस्वती थे; अपितु आपका भक्त-श्रावक-वृन्द भी नरवेषसरस्वती तो नहीं किन्तु । सरस्वत्युपासक अवश्य था और इन्हीं भक्तों की अभ्यर्थना से ही इनने महाकाव्यों पर अपनी लेखिनी चलाई । ऊपर सूचित नं० १.३.७ ग्रन्थों में व्याख्याकार ने जो उपासकों का परिचय दिया है वह ऐतिह्य दृष्टि से बहत ही महत्व रखता है। व्याख्याकार प्रत्येक का परिचय प्रशस्तियों में इस प्रकार देता है: १. श्रीमविक्रमभूपतेरिषुवियद्बारणेन्दुसंख्यामिते, वर्षे राधसिताष्टमी गुरुदिने टीकामिमा निर्ममे । सिन्दूरप्रकरस्य चारुकरुणो निर्मापयामासिवान्, दृष्टान्तः कलितामनाथधिषणश्चारित्रनामामुनिः ।।११।। सिन्दूर प्रकर वृत्ति प्रशस्ति) २. श्रीपुण्यविजयजी संग्रह ३. हीरालाल र. कापड़िया द्वारा उल्लेख ४. अनुष्टुभां सहस्त्राणि चत्वार्यष्टौ शतानि च। ग्रन्थसंख्या मिता यत्र विवृतौ वर्णसंख्यया ।।१३।। १७८ ] [ वल्लभ-भारती

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