Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 217
________________ १८. षष्टिशतक बालावबोध १६. वाग्भटालंकार बालावबोध, २०. विदग्धमुखमण्डन बालावबोध भावारिवारण स्तोत्र पर वृत्ति और बालावबोध दोनों की आपने रचना की है। किस संवत् में इन की रचनायें हुई हैं यह ज्ञात नहीं है। भावारिवारण की वृत्ति और बालावबोध दोनों ही सुविस्तृत और सुन्दर हैं। इस प्रतियां भांडरकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्ट्रोट्य ट पूना आदि में सुरक्षित है। विशेष अध्ययन के लिये देखें, डा. भोगीलाल ज. सांडेसरा लिखित 'पष्टिशतक प्रकरण त्रय बालावबोध' की भूमिका। क्षेमसुन्दर भावारिवारण स्तोत्र के टीकाकार क्षेमसुन्दर के सम्बन्ध में हमें किञ्चित् भी उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु आप खरतरगच्छीय पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे। अतः आपका सत्ताकाल १५ वीं शती का अन्तिम भाग और १६ वीं शती का पूर्वार्ध है। ___ इस टीका की रचना आपने कब और कहां पर की ? इसका प्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं। टीका सामान्यतया सुन्दर है। इसमें प्रायः पर्यायों पर ही विशेष बल दिया गया है । इसकी प्रति जयचन्द्रजी भंडार व मुनिराज श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में है। उपाध्याय पदमराज आचार्य जिनवल्लभ-प्रणीत ग्रन्थों और स्तोत्रों पर टिप्पण, चूणि, वृत्ति, अवचूरि, दीपिका, पञ्जिका, बालावबोध, स्तबक आदि अनेक विवरण प्राप्त हैं। किन्तु स्तोत्रों पर स्वतन्त्र पादपूात्मक रचनाओं में केवल एक कृति को छोड़ अन्य कोई प्राप्त नहीं है। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि वृत्ति इत्यादि की रचना करना सहज है किन्तु पादपूात्मक रचनायें करने के लिये साहित्य-शास्त्र. लक्षण-शास्त्र, छन्द-शास्त्र पर पूर्ण अधिकार होने के साथ-साथ एक विशेष प्रकार की प्रतिभा भी आवश्यक है। यही कारण है कि इस प्रकार की रचनायें वल्लभीय-साहित्य में ही नहीं अपितु संस्कृत-साहित्य में भी अल्प परिमाण में ही प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार की पादपूत्मिक रचना जिन वल्लभ प्रणीत समसंस्कृत-प्राकृत भाषा में महावीर-स्तोत्र प्रसिद्ध नाम भावारिवारण स्तोत्र पर है। इस कति के कर्ता हैं उपाध्याय पद्मराज गणि। __वाचक पद्मराज खरतरगच्छीय श्रीजिनहससूरि के प्रशिष्य, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इत्यादि ग्रन्थों के टीकाकार महोपाध्याय श्रीपुण्यसागर के शिष्य थे। 'राज' नन्दी को देखते हुए युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से सं० १६२३ के लगभग आपकी दीक्षा हुई होगी। प्रश्नोतरैकषष्टिशतक वृत्ति की प्रशस्ति देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि सं० १६४० के पूर्व १८२] [ वल्लभ-भारती

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