Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 218
________________ ही आप गणि पद से अलंकृत हो चुके होंगे। भावारिवारण पादपूर्ति महावीरस्तोत्र की सं० १६५६ में रचित स्वोपज्ञ वृत्ति प्रशस्ति में 'उपाध्याय' पद का उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि तत्पूर्व ही आप इस पद को युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि से प्राप्त कर चुके थे। आप प्रतिभाशाली विद्वान् थे । आपकी प्रतिभा की प्रशंसा आपके गुरु महोपाध्याय पुण्यसागरजी भी प्रश्नोत्तरैषष्टिशत वृत्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति आदि में करते हैं । प्रशस्तियों के अनुसार ये दोनों ही कृतियां आपके सहयोग से पूर्ण हुई थी। आपकी स्वतंत्र और मौलिक रचनाओं में तो भावारिवारण पादपूर्ति महावीर स्तोत्र और महायमकमय पार्श्वनाथ स्तोत्र ही है और टीकाओं में भुवनहिताचार्य तथा जिनेश्वराचार्य रचित दण्डक-स्तुति मुख्य हैं और भाषा-साहित्य में उवसग्गहर बाल वबोध, अभयकुमार चौपाई एवं स्तवन, स्वाध्याय आदि ३० कृतियां प्राप्त हैं। इस स्तोत्र में कवि-निबद्ध श्लोक का अन्तिम चरण ही लेकर पादूपूर्ति की गई है, इसी कारण से इस स्तोत्र के भी ३० ही पथ हैं। सभी पद्यों में अलंकारों एवं गुणों का प्राचुर्य है। उदाहरण के लिये देखिये: गम्भीरिमालयमहापरिमारणमङ्गसम्बद्धभङ्गलहरीबहुभङ्गिचङ्गम् । नीरालयं नय सरणी कुलसङ्कलं वा, देवागमं तब नरा विरला महन्ति ।।११।। इस स्तोत्र पर स्वयं आपकी ही लिखित वृत्ति प्राप्त है। इसकी रचना सं० १६५९ आश्विन कृष्णा १० को जैसलमेर में हुई है: खरतरगणे नवाङ्गी-वृत्तिकृताम भयदेवसूरीणाम् । वंशे क्रमादभूवन् श्रीमज्जिनहस पूरीन्द्राः ॥१॥ तेषां शिष्यवरिष्ठाः समग्रसमयार्थनिष्ककषपट्टाः । श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायाः जज्ञिरे विज्ञाः ।।२।। तेषां शिष्यो विवृति वाचकवर मराज-गणिरकरोत् । भावारिवारणान्तिमचरणनिबलस्तवस्यैताम् ।।३।। ग्रहकरणदर्शनेन्दुप्रमितेब्दे चाश्विनासितदशम्याम् । श्रीजैसलमेरुपुरे श्रीमज्जिनचन्द्र गुरुराज्ये ।।४।। टीका सामान्यतया सुन्दर तथा समृद्ध है । इसकी एक मात्र प्रति मेरे संग्रह में है और इसका प्रकाशन सुमति-सदन कोटा, द्वारा 'भावारिवारण-पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रह' नाम से हो चुका है। १. तेषां शिष्यो विवृति वाचकवर पद्मराज-गणिर करोत् । २. पनराजगणि-सत्सहायतायोगतः सपदि सिद्धिमा गता। वृत्तिकल्पलतिका सतामियं पूरयन्त्वभिमतार्थसल्लतिम् ॥६॥ [प्रश्नोत्तरैकषष्टिशत वृत्ति प्र.] ३.४. भावारिवारण पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रह में प्रकाशित । वल्लभ-भारती] । १९३

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