Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 200
________________ तत्कालीन समय के समर्थ आचार्य युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी को भी सूरिपद के योगोद्वहन कराने वाले आप ही थे, तथा समय-समय पर युगप्रधानजी स्वयं सैद्धान्तिक विषयों में आपसे परामर्श लिया करते थे। आप उस समय के उद्भट विद्वान् और गीतार्थप्रवर माने जाते थे। युगप्रधानजी ने जिनवल्लभीय पौषधविधि प्रकरण पर १६१७ में जिस टीका की रचना की थी उसका संशोधन भी आपने किया था। टीकाकार के रूप में आपने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग पर (सं० १६४५ जैसलमेर राउल भीम राज्ये) बृहद्वृत्ति की रचना की है जो अन्य उपलब्ध समग्र टीकाओं से विशेष प्रौढता धारण करती है। आप की दूसरी टीका प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतं काब्य पर है। इनके अतिरिक्त आपके सुबाहुसन्धि (१६०४ जिनमाणिक्यसूरि आदेशात्), मुनिमालिका (जिनचन्द्रसूरि आदेशात्) एवं स्तवन इत्यादि प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य पर यू.जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में आपने सं० १६४० विक्रमपुर (बीकानेर) में 'कल्पलतिका' नाम की टीका की रचना स्वशिष्य पद्मराज गणि की सहायता से पूर्ण की है: "प्रासीत् पुरा खरतराभिधगच्छनाथः, श्रीमान् जिनेश्वरगुरुः शुभशाखिपाथः । सूरिस्ततोपि जिनचन्द्र इति प्रतीतः, शीतद्य तिप्रतिमचारुगुरसरुदीतः ॥१॥ तदनुकोत्तितरैरविनश्वराः, शुशुभिरेऽभयदेवमुनीश्वराः । विहितचङ्गनवाङ्गसुवृत्तयः, परहितोचतमानसवृत्तयः ॥२॥ तत्सन्ततो समजनिष्ट गरिष्ठधामा, सूरीश्वरः श्रुतधरो जिनभद्रनामा । श्रीजैनचन्द्रगरिणमृद्गुणरत्नराशे-रब्धिस्तत्तो जिनसमुद्रपुरुश्चकाशे ॥३॥ तत्पट्टराजीवसहस्ररश्मयस्ततो बभुः श्रीजिनहंससूरयः । तेषां विनयविवृति विनिर्ममे, यत्नादियं पाठकपुण्यसागरः ॥४॥ समषिता विक्रमसत्पुरेऽसो, वृत्तिषियद्वाद्धिरसेन्दुवर्षे । गुरौ शुभश्वेतमहो दशम्या, श्रीजैनचन्द्राभिधसूरिराज्ये ॥५॥ पद्मराजगणिसत्सहायता योगतः सपदि सिद्धिमागता। वत्तिकल्पलतिका सतामियं. परयन्त्वभिमतार्थसन्ततिम ॥६॥ इस विषम चित्रबद्धप्रश्नोत्तर काव्य पर कई अवचूरिये प्राप्त थीं किन्तु विद्वद्भोग्या १. श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायः पाठकोद्गधनराजः। अपि साधुकीतिगणिना सुशोधिता दीर्घदृष्ट्येयम् ।।२६।। पौषधविधि-प्रकरणटीका प्रशस्ति २. श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे श्रीभीमभूमीपती, राज्ये शासति बागवारिधिरसक्षोणीमिते वत्सरे । पुष्यार्के मधुमासि शुक्लदशमी सहासरे भासुरे, टोके विहिता सदैव जयतादाचन्द्रसूर्य भुवि ।।२।। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका प्रशस्ति ३. जैन स्तोत्र रत्नाकर द्वितीय भाग में सोमसुन्दरसूरि-शिष्य रचित अवचूरि सह प्रस्तुत काव्य प्रकाशित हो चुका है। बल्लभ-भारती] [ १६५

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