Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

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Page 198
________________ इसमें सन्देह नहीं कि लक्ष्मीसेन का व्यक्तित्व अवश्य ही प्रभाव पूर्ण था, अन्यथा १६ वर्ष जैसी अल्पावस्था में इस दुरूह काव्य पर लेखिनी चलाना संभव ही नहीं था। __ यह टीका जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित हो चुकी है। महोपाध्याय साधुकीर्ति सङ्घपट्टक के अवचूरिकार और लघु अजितशान्तिस्तव के बालावबोधकार महोपाध्याय साधुकीत्ति खरतरगच्छीय श्रीजिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य श्री अमरमाणिक्य गणि के प्रमुख शिष्य थे। वैसे आप ओसवाल वंशीय सुचिन्ती गोत्रीय श्रेष्ठि वस्तुपाल-खेमलदेवी के पुत्र थे। आपने सं० १६१७ में युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि रचित पौषधविधिप्रकरण वृत्ति का संशोधन किया था और सं० १६२५ में आगरा में सम्राट अकबर की सभा में पौषधविधि-विषय में तपागच्छीय बुद्धिसागर के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें निरुत्तर' किया था। सं० १६३२ में श्रीजिनचन्द्रसरिजी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। समय-समय पर गच्छनायक स्वयं आप से सैद्धान्तिक-विषयों में परामर्श लिया करते थे। सं० १६४६ माघ वदि १४ को जालोर में आपका स्वर्गवास हुआ था। ' आपने अपने जीवनकाल में शेषनाममाला आदि मौलिक कृतियें और संघपट्टक आदि पर टीकाएं तथा सप्तस्मरण आदि पर बालावबोध एवं सतरभेदी पूजा इत्यादि लगभग छोटे मोटे २३ ग्रन्थों की रचना की हैं। सङ्घपट्टक पर आपने सं० १६१६ माह शुक्ला पञ्चमी को अवचूरि की रचना पूर्ण की है । यह अवचूरि होते हुए भी अर्थ को अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशित करने वाली होने से टीका का ही सादृश्य धारण करती है। इसकी भाषा भी प्राञ्जल है। द्वितीय कृति, लघुअजित-शान्ति-स्तव पर सं० १६१२ दीपावली पर्व पर बीकानेर में मंत्रि संग्रामसिंह के आग्रह से बालावबोध की रचना पूर्ण की है । बालजीवों के लिये यह बालावबोध अत्यन्त ही उपादेय है। उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ . संघपट्टक प्रकरण के बालावबोधकार उपाध्याय लक्ष्मीवल्ल्लभ खरतरगच्छीय क्षेमकीतिशाखा के विद्वान् उपाध्याय लक्ष्मीकीत्ति के शिष्य थे । आपका गार्हस्थ्य जीवन का १. आपके सम्बन्ध में आपके गुरुभ्राता कनकमोम कृत जइतपदवेली तथा जयनिधान कृत स्वर्गगमन गीत देखें। २. तच्छिष्येण सुविहिता सुगमेयं साधूकीतिगरिगनापि । एकोनवशिसमधिक-षोडशसंवत्सरे प्रवरे ॥४॥ माघमासे शुक्लपक्षे पञ्चम्यां प्रवरयोगपूर्णायाम् । विबुधैः प्रपद्यमाना समस्तसुखदायिनी भवतु ॥५॥ ३. यह अवचूरि जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित है। पल्लभ-भारती ] [ १६३

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