Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ चारित्रसूरि संग्रह में प्राप्त हुई । संग्रह का ग्रन्थाँक २६४ है और पत्रांक २३२ से २५६ तक स्वप्नसप्तति टीका का आलेखन है। प्रति का लेखन-काल सं. १४१८ है और यह प्रति श्री कीतिरत्नसूरिशिष्य श्री कल्याणचन्द्रोपाध्याय की है ऐसा पत्रांक १८५ पर उल्लेख मिलता है । यह टीका तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में, गाथा १ से गाथा ३६ तक मूल ग्रन्थ का प्रतीक देते हुए विस्तृत टीका दी गई है । दूसरे भाग में, प्रारम्भ की ३६ गाथाओं में से स्वप्नफलप्रतिपादक ८ वीं गाथा से २६ वीं गाथा तक, अर्थात १६ मूल ग्रन्थ की पूर्ण गाथायें देते हुए पुनः उनकी टीका दी गई है और अन्त में कृतिः श्रीजिनवल्लभसूरेः' का उल्लेख किया गया है । इसके साथ ही जिनपालोपाध्याय प्रणीत २८ गाथायें देते हुए लिखा है "इति गजादिस्वप्नाष्टकफलप्रतिपादकगाथासमस्तार्थः समाप्तः । कृतिर्वा जिनपालगणिरिति ।" इससे यह स्पष्ट है कि द्वितीय भाग की टीका जिनपालोपाध्याय प्रणीत है। तीसरे भाग में, गाथा १ से ३५ तक, पूर्ण गाथायें देते हुए उनकी सक्षेप में टीका दी गई है। अन्त में 'स्वप्नसप्ततिटीका समाप्ता' लिखा है । टीकाकार का नाम नहीं दिया गया है। प्रथम भाग की ३६ गाथायें और तीसरे भाग की ३५ गाथायें अर्थात् ७१ गाथाओं में यह ग्रन्थ पूर्ण होता है जोकि नाम से स्पष्ट है। तीनों भागों की टीका-रचना शैली पृथक्-पृथक् होने से यह तो स्पष्ट है कि तीनों ही टीकाकार अलग-अलग हैं। प्रथम और तृतीय भाग के टीकाकार अज्ञात हैं एवं दूसरे भाग के टीकाकार जिनपालोपाध्याय हैं। आश्चर्य है कि किसी भी टीकाकार ने टीका के प्रारम्भ में या अन्त में कोई मंगलाचरण या प्रशस्ति नहीं दी है। टीकाकारों ने टीका का प्रारम्भ भी अनूठे ढंग से किया है, मानों किसी अन्य ग्रन्थ की टीका करते हुए प्रसंगवश इसकी भी टीका कर रहे हों, यथा --'अधुना क्रियाविकलस्यापि भावस्य. प्राधान्यं दर्शयन् दृष्टान्तमाह ।' आचार्य जिनवल्लभ ने सार्द्धशतक, षडशीति, अष्टसप्ततिका, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकादि ग्रन्थों के समान ही ७१ गाथा के इस ग्रन्थ का नाम भी स्वप्नसप्तति या स्वप्नकसप्तति रखा है। श्री अगरचन्दजी नाहटा की सूचनानुसार इसका नाम 'आगमोद्धार' भी है। जिनवल्लभ के प्रायः समस्त ग्रन्थों में, प्रारम्भ में मंगलाचरणात्मक तीर्थंकरों को नमस्कार और ग्रन्थान्त में स्वयं का नाम प्राप्त होता है, किन्तु स्वप्नसप्तति में इन दोनों का अभाव है। ग्रन्थ का सारांश दुषम काल में पूर्ण चारित्र धर्म के अभाव में भी सम्यक् (सुविहित) मार्ग पर चल कर, यथाशक्ति अनुष्ठान करने वाले भव्यजीव सिद्धान्तनिया से मुक्ति को प्राप्त करेंगे। भगवान् महावीर ने कहा है कि दुषमकाल के अन्तिम समय में, श्री दुप्पसहसूरि तक छेदोपस्थान चारित्र रहेगा। अतः इस दुषमकाल में उक्त चारित्र का अभाव मानना व्यामोह मात्र है। तीर्थंकरों की विद्यमानता में भी आज्ञाबाह्य एवं जिनवचन-विराधकों को उक्त चारित्र कदापि नहीं होता है । अतः भव्यों को चारित्र के प्रति यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये और व्यामोहित गतानुगतिकमार्ग का त्याग कर, जिनाज्ञा एवं आगमसम्मत चारित्र धर्म का विचार, १०० ] [ वल्लभ-भारती

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244