Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

View full book text
Previous | Next

Page 182
________________ व्याख्या के अतिरिक्त तत्सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों को पढने की आवश्यकता ही न रहे । आपकी व्याख्या पटुता के सम्बन्ध में क्या प्रकाश डाला जाय ! सूर्य की किरणें सर्वत्र ही प्रकाशमान है। इस प्रकरण पर टीका रचकर आपने जिनवल्लभगणि की शिष्ट और आप्तकोटि के महापुरुषों में गणना की है जो वस्तुतः आचार्य जिनवल्लभ की गीतार्थता और प्रामाणिकता को उद्घोषित कर रही है। अन्य टीका-ग्रन्थों की तरह इसमें भी नाम के अतिरिक्त किंचित् भी उल्लेख प्राप्त नहीं हैं। यह टीका 'सटीकाश्चत्वारः प्राचीनकर्मग्रन्थाः' नाम से आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है। हरिभद्रसूरि आगमिक-वस्तुविचारसार प्रकरण (षडशीति) के टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरि वृहद्गच्छीय श्रीमानदेवसूरि के प्रशिष्य और उपाध्यायवर श्री जिनदेव के शिष्यरत्न थे। आपका सत्ताकाल १२ वीं शती का उतरार्द्ध है । आपने सं० ११७२ श्रावण शुक्ला ५ रविवार को सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में अणिहलपूर पाटण में आशापरी वसति में निवास करते हुए ८८५ श्लोक-परिमाण की षडशीती पर टीका की रचना की है: "मध्यस्थभावादचलप्रतिष्ठः, सुवर्णरूपः सुमनोनिवासः । अस्मिन्महामेरुरिवास्ति लोके, श्रीमान् वृहद्गच्छ इति प्रसिद्धः ॥५॥ तस्मिन्न भूदायतबाहुशाखः, कल्पद्रमाभः प्रभुमानदेवः । यदीयवाचो विबुधैः सुबोधाः, कर्णेकृता नूतनमञ्जरीवत् ॥६॥ तस्मादुपाध्याय इहाजनिष्ट, श्रीमान्मनस्वी जिनदेवनामा । गुरुक्रमाराधयिताल्पबुद्धिस्तस्यास्ति शिष्यो हरिभद्रसूरिः ॥७॥ प्रणहिल्लपाटकपुरे श्रीमज्जयसिंहदेवनृपराज्ये । प्राशापूरवसत्यां वृत्तिस्तेनेयमारचिता ८॥ एकेकाक्षरगणनादस्या वृत्तेरनुष्टुभां मानम् । प्रष्टौ शतानि जातं पञ्चाशत्समधिकानीति ।। वर्षशतकादशके द्वासप्तत्यधिके ११७२ नभोमासे । सितपञ्चम्यां सूर्ये समर्थिता वृत्तिकेयमिति ॥१०॥ श्रीहरिभद्रसूरि भी तत्समय के प्रसिद्ध टीकाकारों में से हैं। आपके प्रणीत अन्य प्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं; वे निम्नलिखित हैं:१. बन्धस्वामित्व कर्मग्रन्थ टीका र.सं. ११७२ पाटण २. प्रशमरति प्रकरण वृत्ति सं. १९८५ ३. क्षेत्रसमास वृत्ति ४. मुनिपतिचरित्र (प्राकृतभाषा) ५. श्रेयांसनाथचरित्र (प्राकृतभाषा) वल्लभ-भारती] [ १४७

Loading...

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244