Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ इस प्रशस्ति में आचार्य ने रचनाकाल का निर्देश नहीं किया है किन्तु आचार्य धनेश्वर की सार्द्ध शतक टीका का उल्लेख होने से तथा आचार्य जिनप्रभसूरि कृत विविधतीर्थ कल्पान्तर्गत फलवधि पार्श्वनाथ कल्प में आ० धर्मसूरि द्वारा सं. १९८१ में फलौदी पार्श्वनाथ चैत्य की प्रतिष्ठा का उल्लेख होने से, यह निश्चित है कि आचार्य का सत्ताकाल १२ वीं शती का अन्तिम चरण और १३ वीं शती का प्रथम चरण है। अतः यह अनुमान किया जा सकता है इसकी रचना ११८५ के पश्चात् आचार्य ने की है । आचार्य यशोभद्र ने ग्रन्थकार पूज्य जिनवल्लभ की रचना के सन्मुख अपनी जो पंगुता लघुता प्रकट की है; वह दर्शनीय है : - क्वासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सूक्ष्मार्थचर्चाञ्चिता, क्वेयं मे मतिरग्रिमा प्रणयिनी मुग्धत्व पृथ्वीभुजः । पङ्गोस्तुङ्गनगाधिरोहण सुहृद्यत्नोयमार्यास्ततोसद्ध्यानव्यसनार्णवे निपततः स्वान्तस्य पोतोषितः ॥ २ ॥ यह टीका आचार्य मलयगिरि और आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत टीकाओं के सम्मुख साधारण कोटि की होती हुई भी साधारण विद्वानों की तृषा को बुझाने में पूर्ण समर्थ है । श्लोक-परिमाण में भी अन्य टोकाओं की अपेक्षा इसका परिमाण विपुल है । स्थान-स्थान पर भाषा की प्राञ्जलता के साथ-साथ वाग्वैदग्ध्य भी प्राप्त होता है । विवेचन सुन्दर पद्धति से किया गया है। इस टीका की प्रति प्र० कान्तिविजयजी संग्रह बड़ोदा में सुरक्षित है । देशाई के अनुसार आपका प्रणीत 'गद्यगोदावरी' नामक ग्रन्थ भी प्राप्त है । श्रीचन्द्रसूरि पिण्डविशुद्धिप्रकरण के टीकाकार श्रीचन्द्रसूरि चान्द्रकुलीय शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य और श्रीधनेश्वरसूरि के शिष्य थे। मुनि अवस्था में आपका नाम पार्श्वदेव गणि था, आचार्य होने के पश्चात् आपका श्रीचन्द्रसूरि नाम प्रसिद्ध हुआ । सं० १२०४ में मन्त्री पृथ्वीपाल विमल सहि (आबू ) का उद्धार करवाया था, उस समय आप भी वहां विद्यमान थे । आप एक समर्थ टीकाकार और प्रतिभाशाली विद्वान् थे । सं० १९७१ में जिनबल्लभी सार्द्ध शतक पर आपके गुरुश्री ने टीका रची थी उसमें आप सहायभूत थे:युक्तायुक्तविवेचन-संशोधन लेखनै कदक्षस्य । निशष्यस्य सुसाहाय्याद् विहिता श्रीपाश्वदेवगणेः ॥ १२ ॥ बल्लभ-भारती 1 ( सार्द्धं शतकटीका प्रशस्तिः ) [ १४e

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244