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टीका को देखते हुए यह मालूम होता है कि व्याख्याकार 'मूले इन्द्र बिडोजा टीका' के चक्र में नहीं फंसे हैं और न इसका व्यर्थ में कलेवर ही बढाया है; किन्तु ग्रन्थकार के आशय को विशदता और सरसता के साथ बहुत ही सुन्दर पद्धति से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । भाषा भी आपकी दुरूह न होकर सरल होते हुए भी प्रवाह पूर्ण एवं परिमार्जित है। साथ ही इसकी एक यह भी विशेषता है कि विषय को रोचक बनाने के लिये प्रसंग प्रसंग पर उदाहरण भी दे दिये हैं। उदाहरण बृहद्वृत्ति की तरह विस्तृत न होकर संक्षेप में हैं; पर जो हैं वे भी प्राकृत आर्याओं में । इससे स्पष्ट है कि आपका प्राकृत भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। यह वृत्ति लघु होते हुए भी अपने में पूर्ण है अर्थात् इसको समझने के लिये अन्य टीका की आवश्यकता नहीं रहती।
आपके प्रणीत और भी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनकी सूचि निम्न प्रकार है :
सं० ११७२ में हारिभद्रीय पंचाशक पर चणि, सं० ११७४ में इपिथिकी, चैत्यवन्दन और वन्दनक पर चूणिये, सं० ११७८ में पाटण में सिद्धराज जयसिंह के राज्य में सोनी नेमिचन्द्र की पौषधशाला में निवास करते हुए पाक्षिकसूत्र पर सुखावबोधा नाम की टीका और सं० ११८२ में रचित प्रत्याख्यान-स्वरूप आदि की रचनाएं प्राप्त हैं।
यह टीका जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है।
उदयसिंहसूरि
पिण्ड विशुद्धि प्रकरण के दीपिकाकार श्री उदयसिंहसूरि चन्द्रकूलीय आगमज्ञ श्री श्रीप्रभरि (धर्मविधिप्रकरण के प्रणेता ) के प्रशिष्य और श्रीमाणिक्यप्रभसरि ( कच्छूली पार्श्वचैत्य के प्रतिष्ठाकार) के शिष्य थे। आपने श्रीयशोदेवसूरि प्रणीत लघवृत्ति को आदर्श मानकर तदनुसार ही सं० १२६५ में ७०३ श्लोक प्रमाणवाली इस दीपिका की रचना की। जैसा कि प्रशस्ति से स्पष्ट है:
इति विविधविलसदर्थ सुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम् । श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन्न कस्य मुदे ॥१॥ मादृश इह प्रकरने महाथपंक्तौ प्रिवेश बालोऽपि। यवृत्त्यङ्गा लिलग्नस्तं श्रयंत गुरु यशोदेवम् ॥२॥ प्रासीदिह चन्द्रकुले श्रीश्रीप्रभरिरागमधुरीणः । तत्पदकमलमरालः श्रीमाणिकप्रभाचार्यः ॥३॥ तच्छिष्याणुजडधी-रात्मविवे साररुदयसिंहाख्यः। पिण्डविशुद्ध वृत्ति-मुद्दधे दीरिकामेनाम् ॥४॥ अनया पिण्डविशुद्ध-पिकया साधवः करस्थितया। शस्यावलोककुशला दोषोत्थतमांस्यपहरन्तु ॥५॥ विक्रमतो वर्षारणा पञ्चनवधिक रविमितशतेषु । विहितेयं श्लोकैरिह सूत्रयुता व्यधिकसप्तशती ॥६॥
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[ वल्लभ-भारती