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फल प्राप्त होता माना जाता है। इस स्तोत्र में भी प्रथम और दूसरे पद्य में इसकी महत्ता का निर्देश है । तीसरे से आठवें तक पंच परमेष्ठि का स्वरूप और ध्यान तथा आराधन की विधि है तथा ६ से १३ तक इसके आराधन से फल प्राप्त करने वाले कतिपय आराधकों के नाम तथा इससे होने वाले अनेक प्रकार के फलों और सिद्धियों का वर्णन है । अन्तिम पद्य में अपने नाम के साथ इस मंत्र के आराधन की शिक्षा देते हुए उपसंहार किया गया है।
इस स्तोत्र की भाषा अपभ्रंश है और इसका छन्द वस्तुवदन और दूहा मिश्रित 'द्विभंगी' है । कतिपय प्रतियों में 'गुरु जिणवल्लहरि भणइ' के स्थान पर 'गुरु जिणप्पहसूरि भइ' भी मिलता है । भाषा की दृष्टि से देखते हुए यह स्तोत्र जिनप्रभसूरि प्रणीत भी हो सकता है जैसा कि कुछ प्रतियों में उल्लेख है । परन्तु जिनप्रभसूरि की शिष्यपरंपरा द्वारा लिखित सोलहवीं शती के एक गुटके में भी 'जिनवल्लभसूरि' नाम ही लिखा है ।
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[ वल्लभ-भारती