Book Title: Upasaka Dasha Sutram
Author(s): A F Rudolf Hoernle
Publisher: Bibliotheca Indica

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Page 296
________________ प्रथममध्ययनम्। उच्यते, पूर्वेतपृथिव्यादिसचित्तमामान्यापेक्षया, ओषधीनां मदाभ्यवहरणत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ, दृश्यते च मामान्योपादाने सत्यपि प्राधान्यापेक्षया विशेषोपादानमिति // 3 // दुप्पउलिनोसहिभक्खग्णया दःपक्का अखिन्ना ओषधयस्तद्भवणता। अतिचारता चास्य पक्कबध्या भक्षयतः // 3 // तुच्छोमहिमक्खणय त्ति तुच्छा अमारा श्रोषधयो ऽनिष्पन्न मुद्गफलीप्रभृतयः / तद्भवणे हि महतो विराधना स्वल्पा च तकार्यटप्तिरिति / विवेकिनाचित्ताशिना तार अचित्तौकृत्य न भक्षणीया भवन्ति / तत्करणेनापि भक्षणे ऽतिचारो भवति व्रतसापेक्षत्वात्तस्येति // 5 // दह च पञ्चातिचारा इत्यपलक्षणमात्रमेवावसे यं, यता मधुमद्यमांसरात्रिभोजनादिवतिनामनाभोगातिक्रमादिभिरनेके ते सम्भवन्तौति // कम्मो पमित्यादि कर्मतो यरपभोगव्र "खरकर्मादिकं कर्म प्रत्याख्यामि” इत्येवंरूपं, तत्र श्रमणोपामकेन पञ्चदशकर्मादानानि वर्जनीयानि // दृङ्गालकम्मे त्ति अङ्गारकरणपूर्वकस्तद्विक्रय एवं यदन्यदपि वहिसमारम्भपूर्वकं जीवन मिष्टकाभाण्डकादिपाकरूपं तदङ्गारकर्मेति ग्राह्यं ममानस्वभावत्वात्। अतिचारता चास्य कृतैतत्प्रत्याख्यानस्यानाभोगादिना, अत्रैव वनादिति। एवं सर्वत्र भावना कार्या // 1 // नवरं वनकर्म वनस्पति छेदनपूर्वकं तदिक्रयजीवनम् // 2 // शकटकर्म शकटानां घटनविक्रयवाइनरूपम् // 3 // भाटककर्म मूल्यार्थं गव्यादिभिः 18 दुपकोमहि। 20 अचित्ता, e अग्निना चंचित्ता। 3ae om. 4 e om. So c; but a उपभोगपरिभोगत्रतं, उपरिभोगवतं / See note 60 in the Translation.

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