Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ सृष्टिवाद का नया आयाम आचार्य महाप्रज्ञ जैन-साहित्य को आगम, दर्शन और मध्युगीन दर्शन - इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। द्वादशांगी और उसके उपजीवी ग्रन्थ आगम की कोटि में परिगणित हैं। सन्मतितर्क, तत्त्वार्थसूत्र, समयसार, पंचास्तिकाय, आप्तमीमांसा, विशेषावश्यकभाष्य, षट्खण्डागम, कषायपाहुड आदि ग्रन्थ दर्शन की कोटि में परिगणित होते है। लघीयमयी, शास्त्र-वार्ता समुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, प्रमाण-नय-तत्त्वावलोक, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमाण-मीमांसा आदि मध्ययुगीन दर्शन के ग्रन्थ हैं। दर्शन के ग्रन्थ आगमोक्त तत्त्वों को दर्शन की शैली में प्रस्तुत करते हैं। उनकी शैली दार्शनिक है और प्रतिपाद्य विषयवस्तु आगमिक है। मध्युगीन दार्शनिक ग्रन्थ आगम से व्यवहित प्रतीत होते हैं। उनकी शैली तार्किक है और उनकी विषयवस्तु का निर्धारण अन्य दर्शन सापेक्ष किया गया है - बौद्ध, नैयायिक आदि दर्शनों द्वारा मान्य प्रमाणमीमांसा और तत्त्व-मीमांसा और तत्त्व-विद्या परीक्षा करना, असम्मत विषयों का निरसन करना और मान्य सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा करना। मध्युगीन दर्शन के ग्रन्थों में आगम की पृष्ठभूमि प्रधान नहीं है। इसलिए वे अन्य दर्शनों के प्रतिपक्ष में खड़े हुए दिखाई दे रहे हैं। यह आरोप भी सर्वथा अहेतुक नहीं है कि जैन दर्शन दूसरे दर्शनों के विचारों का एक पुलिन्दा है, उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। तार्किक भूमि पर बौद्ध और नैयायिक अपने पांव पहले ही स्थिर कर चुके थे। जैन तार्किकों ने बौद्धों के विचारों के खण्डन में नैयायिकों के तर्कों का प्रयोग किया और नैयायिकों के विचारों के खण्डन में बौद्धों के तर्को का प्रयोग किया, इसलिए वैसी धारणा का बन जाना अहेतुक नहीं है। जैन तार्किक अनेकान्त के विकास में बहुत सफल रहे हैं, पर आगमों में उपलब्ध बहुमूल्य मुक्ता-मणियों का हार बनाने में उनका प्रयत्न पुरस्कृत नहीं रहा। यदि वह होता तो जैन दर्शन की मौलिकता अन्यान्य दर्शनों के लिए गंभीर अध्ययन का विषय बनती। दर्शन का एक महत्वपूर्ण विषय है सृष्टिवाद । जैन दर्शन सत्-असत्वाद को स्वीकार करता है। उसके अनुसार 42 - -- - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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