Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। उनकी माता ने उनका दृढ़ निश्चय देखकर उन्हें साधु दीक्षा की अनुमति दे दी और वे सन् 1751 में जैन स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षित हो गये। तत्कालीन परिस्थिति - यह वह समय था जब दिल्ली में 1707 में औरंगजेब के मृत्यु के अनन्तर मुगल साम्राज्य का ह्रास होना प्रारम्भ हो चुका था। भारतीय रजवाड़ों के राजाओं की पारस्परिक फूट अपने पूरे यौवन पर थी । उसी फूट का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने 1757 में प्लासी युद्ध की विजय के बाद निरन्तर सफलता प्राप्त करते हुए दिल्ली की ओर बढ़ना चालू किया हुआ था। समाज अज्ञान तथा रूढ़ियों में डूबा था। सामन्तवादी युग था । अन्धविश्वास फैले थे। विद्या का प्रचार बहुत कम था। यद्यपि लोग धर्मप्रिय थे किन्तु राजनैतिक तथा सामाजिक ह्रास साथ धर्म संस्था भी ह्रासोन्मुख थी। साधु भी प्रायः मर्यादा का उल्लंघन कर रहे थे। एक क्रान्ति - अकस्मात जैन स्थानकवासी सम्प्रदाय के कुछ गृहस्थों में अपने ही सम्प्रदाय के साधुओं के शिथिलाचार के प्रति विद्रोह का भाव उठ खड़ा हुआ। यह घटना सन् 1758 की है। आचार्य रघुनाथजी ने अपने शिष्य मुनि भिक्षु को उन गृहस्थों को शान्त करने के लिए भेजा, किन्तु मुनि भिक्षु ने पाया कि गृहस्थ जो आपत्ति कर रहे थे, वे ठीक थे। उन्होंने अपने गुरु आचार्य रघुनाथजी को गृहस्थों की आपत्ति के अनुसार संघ के नियमों में सुधार करवाने की चेष्टा की किन्तु वे सफल नहीं हुए। अन्ततोगत्वा उन्हें आचार्य रघुनाथजी से अपना सम्बन्ध तोड़ना पड़ा। वे उनके संघ से अलग हो गये । उनके साथ दूसरे भी चार साधु संघ से अलग हो गये। यह घटना सन् 1760 की है। साधु का जीवन भिक्षा-चर्या पर चलता है। पूरे प्रयत्न हुए कि उन्हें कोई ठहरने की जगह न दे और न ही भिक्षा। जैन साधु की चर्या यूं तो स्वतः ही कठिन ही होती है किन्तु आचार्य भिक्षु और उनके साथी साधुओं के लिए तो पूरे समाज में विरोध का वातावरण तैयार कर दिया गया था। अतः उनका समय अत्यन्त कष्टमय बीता। तेरापंथः सत्य की खोज- सत्य के अन्वेषक के लिए जो भी कठिनाइयां आती हैं वे सभी कठिनाइयां आचार्य भिक्षु पर एक साथ आयी किन्तु वे अपने पथ से जरा भी विचलित नहीं हुए। वे पांच साधु थे, आठ और साधु उनके साथ आ मिले और इस प्रकार उनकी संख्या तेरह हो गयी। इस तेरह की संख्या के आधार पर उनके अनुयायी साधु समूह का नाम तेरापंथ हो गया। उधर जैन परम्परा में पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति को मिलाकर चरित्र के तेरह घटकों की बात प्रसिद्ध थी । अतः आचार्य भिक्षु ने इस नाम को स्वयं भी स्वीकार कर लिया। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100